Ushba Tabeer

Ushba Tabeer

@ushba-tabeer

Ushba Tabeer shayari collection includes sher, ghazal and nazm available in Hindi and English. Dive in Ushba Tabeer's shayari and don't forget to save your favorite ones.

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  • Ghazal
सफ़ीरान-ए-मोहब्बत प्यार की राहों में पलते हैं
सभी ऐश-ओ-तरब मेरे तिरी बाहों में पलते हैं

शिकस्ता-दिल का मैं अपने कभी क़िस्सा न छेड़ूँगी
सितम तो इश्क़ वालों की पनह-गाहों में पलते हैं

मुबारक शहर वालों को मुज़य्यन शहर की रौनक़
हमारा क्या क़लंदर हैं गुज़रगाहों में पलते हैं

अमीर-ए-शहर मत उलझो मोहब्बत के फ़क़ीरों से
ये बंदे रब की रहमत की सदा छाँव में पलते हैं

अभी तक खुल नहीं पाया इरादा यार का क्या है
मगर हम कह नहीं सकते कि हम छाँव में पलते हैं

ज़माना साथ कब देता है रंज-ओ-ग़म के मौसम में
दिल-ए-मुज़्तर के सब अरमान बस आहों में पलते हैं

ख़ुशी का राज़ दौलत में निहाँ होता नहीं 'उश्बा'
गुल-ए-शादाब ख़ारों की पनह-गाहों में पलते हैं
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Ushba Tabeer
समझ न पाई कि क्या बे-महार चाहता था
अजीब शख़्स था ख़ुद से फ़रार चाहता था

वो मेरी अर्ज़ भी हुकमन शुमार करने लगा
वो हर तरह से मिरा ए'तिबार चाहता था

उसे क़ुबूल थी वैसे तो मेरी मजबूरी
मगर वो मुझ पे ज़रा इख़्तियार चाहता था

जवाँ दिलों के मराहिल तो तय किए सारे
मगर वो वस्ल में कुछ इंतिज़ार चाहता था

तमानियत न मिली मुझ को फिर किसी सूरत
कि मेरा दिल भी तो होना फ़िगार चाहता था

कभी न अश्क बहाओगी मुझ से वा'दा करो
वो प्यार में भी फ़क़त इक़्तिदार चाहता था

बस इक अना थी कि जिस ने डुबो दिया उस को
मगर वो फिर भी उसी का हिसार चाहता था

तमाम शर्तों पे सर को है ख़म किया मैं ने
कि इश्क़ दर्द का इक कोहसार चाहता था

सभी चराग़-ए-मोहब्बत बुझा दिए उस ने
कि वो हवा पे भी होना सवार चाहता था

वो थक गया था मोहब्बत की आरज़ू करते
बिछड़ के मुझ से वो शायद क़रार चाहता था

ये दास्ताँ भी उसी शख़्स ने लिखी 'उश्बा'
तवील क़िस्से में जो इख़्तिसार चाहता था
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Ushba Tabeer
हर ग़ज़ल ख़्वाब की सूरत में ढली लगती है
तेरे एहसास में भी जादूगरी लगती है

मुद्दतों बाद ये सावन को भला क्या सूझी
मेरी आँखों में तो हर रोज़ झड़ी लगती है

इश्क़ में हो गई दीवानों सी हालत मेरी
मौत हर-वक़्त मिरे सर पे खड़ी लगती है

हुस्न-ए-ता'बीर मिरी आँख में उतरा कैसे
तू कोई हूर है या कोई परी लगती है

धड़कनें रक़्स में ज़ंजीर-ज़नी करती हैं
अब कि जज़्बात में शोरीदा-सरी लगती है

भर दिया मैं ने तग़ज़्ज़ुल में सभी रंगों को
तेरी तस्वीर निगाहों में बसी लगती है

बज रही है कोई पाज़ेब फ़ज़ा में शायद
चाँद तारों पे कोई शोख़ चढ़ी लगती है

दिल है इक दश्त की मानिंद तुम्हारा 'उश्बा'
तभी क़िस्मत में सदा तिश्ना-लबी लगती है
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Ushba Tabeer
उलझनों पर उलझनें ख़लजान है ख़लजान पर
आह कितनी आफ़तें हैं हज़रत-ए-इंसान पर

काम फिर करती नहीं है मंतिक़-ओ-तदबीर कुछ
पर्दा जब पड़ जाए तेरी अक़्ल की शिरयान पर

दिल अदावत से भरे हैं पर ज़बाँ शीरीं-सुख़न
इस लिए कुढ़ता है दिल इख़्लास के फ़ुक़्दान पर

धूल सारी उम्र फिर वो चाटता फिरता रहे
मो'तरिज़ हो जाए जब इंसान ही विज्दान पर

ग़स्ब कर जाते हैं अक्सर हक़ किसी मासूम का
लोग मिट्टी डालते हैं इस तरह ईमान पर

हाल में रह कर भी रिश्ता रखते हैं माज़ी के साथ
रश्क आशिक़ इस क़दर करते हैं हर नुक़सान पर

क्यों बसारत की ज़मीं बंजर की बंजर रह गई
दुख है तेरी ज़ात पर तुफ़ है तिरी पहचान पर

पर्बतों पर भी अगर रख दो तो झुक जाएँगे वो
ऐसे ऐसे दर्द भी झेले हैं हम ने जान पर

आज 'उश्बा' लोग मेरी बात क्यों सुनते नहीं
ख़ुद को कोसूँ या कि रोऊँ ऐसे कज-अज़हान पर
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