ज़मीं पर रहने वाले आसमाँ की बात करते हैं
हैं ज़र्रे ख़ाक के पर कहकशाँ की बात करते हैं
हों तलवारों तले गर्दन कि नेज़ों पर हों उनके सर
जो अहल-ए-'इश्क़ हैं अम्न-ओ-अमाँ की बात करते हैं
जहाँ ईमान की ख़ुशबू उड़ा करती है हर लम्हा
फ़रिश्ते उनके संग-ए-आस्ताँ की बात करते हैं
हमें क्यों अब तमन्ना हो कि जन्नत पाएँगे इक दिन
जहाँ पर ज़िक्र-ए-जन्नत हो, तो माँ की बात करते हैं
ये किस की बात पर इतना यक़ीं करने लगे हैं जो
ये ख़ाकी जिस्म भी अब दो-जहाँ की बात करते हैं
यक़ीं हो तो ख़ुदा-ए-पाक की रहमत पे ऐसा हो
झुलसती धूप में हम साइबाँ की बात करते हैं
जहाँ को कलमा-ए-तौहीद से महका दिया जिसने
उसी इक मेहरबाँ की, बाग़बाँ की बात करते हैं
हक़ीक़त से त'अल्लुक़ है हमारा हम हक़ीक़त हैं
ख़्यालों के पुजारी बस गुमाँ की बात करते हैं
ये दिल वालों की बस्ती है यहाँ हैं दर्द के क़िस्से
सो अहल-ए-दिल फ़क़त सोज़-ए-निहाँ की बात करते हैं
ख़ुदा का शुक्र है हम पर मुसलसल 'फ़ैज़' जारी है
ये आँखें नम ही रहती हैं फ़ुग़ाँ की बात करते हैं
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