दामन-ए-गुल में वो थी अश्क़ फ़िशानी की तरह
मैंने चाहा था जिसे रात की रानी की तरह
मिस्ल-ए-ख़्वाहिश जिन्हें मैं रखता हूँ अफ़सोस कि वो
मेरी यादें भी नहीं रखते निशानी की तरह
उसको समझाऊँ तो कैसे जो रहा दिल में मिरे
न ही अल्फ़ाज़ की सूरत न मआनी की तरह
फ़न का दावा वो किया करते हैं हैरत है मुझे
ग़ालिब ओ ज़ौक़ के जैसे हैं न फ़ानी की तरह
यूँ तो उस्ताद बहुत शहर-ए-निगाराँ में मिले
कोई पाया न मगर रहबर-ए-सानी की तरह
अपनी साँसों को समझते रहे जिनकी साँसें
वो हमें भूल गए एक कहानी की तरह
कर्बला में जो मदीने के मुसाफ़िर पहुँचे
ख़ून फिर उनका बहाया गया पानी की तरह
ज़ेहन ओ दिल दोनों हैं इक शेर की सूरत मेरे
इक है ऊला तो है इक मिसरा ए सानी की तरह
फ़ैज़ गज़लों को सलीके़ से सँवारा मैंने
मेरा हर शेर है दरिया की रवानी की तरह
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