दूर क्यूँ करते हो मुझ को दिल के अपने ध्यान से
मैं तुम्हारा हूँ मुक़म्मल जिस्म-ओ-ज़ेहन-ओ-जान से
साथ चलना है तो राह-ए-कामयाबी पे चलो
ज़िन्दगी रौशन मैं कर दूँगा तिरी मुस्कान से
माँ भवानी की कसम खाता हूँ मेरा कर यक़ीन
सर उठा के तू चलेगी साथ मेरे शान से
कहने पे तेरे रुका हूँ, ज़िक्र-ए-लम्स-ए-ग़ैर पर
फिर कहा गर रूह उसकी नोंच लूँगा जान से
तेरे आने की कहीं उम्मीद शायद बाक़ी है
अब उठा ले जाओ मुझ को इश्क़ के शमशान से
मौत जैसे गुज़रे है नाराज़गी से उस से दिन
पर ख़बर उस को न होने पाए कानों-कान से
बे-क़रारी में सँभाला कैसे मैंने ख़ुद को है
बे-क़रारी में सँभाला ख़ुद को कर हलकान से
तू समझती है ये दुनिया वैसी तो बिल्कुल नहीं
कैसे दिल तुझ को लगाने दूँ किसी अंजान से
इतने ज़ख़्मों को लिए अब तो नहीं जी सकता मैं
ज़ेहन कब का मर गया अब मरना चाहूँ जान से
क्यूँ न थोड़ा साथ चल के देख लो तुम "दीप" के
लोग सब जानेंगे तुम को "दीप" की पहचान से
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