गए मंज़रों से ये क्या उड़ा है निगाह में
कोई अक्स है कि ग़ुबार सा है निगाह में
हमा-वक़्त अपनी शबीह के हूँ मैं रू-ब-रू
कोई अश्क है कि ये आईना है निगाह में
कोई शहर-ए-ख़्वाब गुज़र रहा है ख़याल से
कोई दश्त-ए-शाम सुलग रहा है निगाह में
कफ़-ए-दर्द से ग़म-ए-काएनात की गर्द से
वही मिट रहा है जो नक़्श सा है निगाह में
कोई तीरगी है फ़ुरात-ए-जाँ में रवाँ-दवाँ
मगर इक चराग़ सा तैरता है निगाह में
गए मौसमों की वो सब्ज़ रंग हिकायतें
कोई आब-ए-सुर्ख़ से लिख गया है निगाह में
Our suggestion based on your choice
As you were reading Shayari by Aftab Hussain
our suggestion based on Aftab Hussain
As you were reading Miscellaneous Shayari