हुस्न हीरे की कनी हो जैसे
और मिरी जाँ पे बनी हो जैसे
तेरी चितवन के अजब तेवर हैं
सर पे तलवार तनी हो जैसे
रेज़ा रेज़ा हुए मीना-ओ-अयाग़
रिंद-ओ-साक़ी में ठनी हो जैसे
अपनी गलियों में हैं यूँ आवारा
कि ग़रीब-उल-वतनी हो जैसे
हर मुसाफ़िर तिरे कूचे को चला
उस तरफ़ छाँव घनी हो जैसे
तेरी क़ुर्बत की ख़ुमार-आगीनी
रुत शराबों में सनी हो जैसे
ये कशाकश की मय-ए-मर्द-अफ़्गन
तेरी पलकों से छनी हो जैसे
Our suggestion based on your choice
As you were reading Shayari by Afzal Parvez
our suggestion based on Afzal Parvez
As you were reading Miscellaneous Shayari