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हुस्न हीरे की कनी हो जैसे  - Afzal Parvez

हुस्न हीरे की कनी हो जैसे
और मिरी जाँ पे बनी हो जैसे

तेरी चितवन के अजब तेवर हैं
सर पे तलवार तनी हो जैसे

रेज़ा रेज़ा हुए मीना-ओ-अयाग़
रिंद-ओ-साक़ी में ठनी हो जैसे

अपनी गलियों में हैं यूँ आवारा
कि ग़रीब-उल-वतनी हो जैसे

हर मुसाफ़िर तिरे कूचे को चला
उस तरफ़ छाँव घनी हो जैसे

तेरी क़ुर्बत की ख़ुमार-आगीनी
रुत शराबों में सनी हो जैसे

ये कशाकश की मय-ए-मर्द-अफ़्गन
तेरी पलकों से छनी हो जैसे

- Afzal Parvez

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