0

हुस्न-ए-बाज़ार तो है गर्मी-ए-बाज़ार नहीं  - Ahmad Kamal Hashmi

हुस्न-ए-बाज़ार तो है गर्मी-ए-बाज़ार नहीं
बेचने वाले हैं सब कोई ख़रीदार नहीं

आओ बतलाएँ कि वा'दों की हक़ीक़त क्या है
पेड़ ऊँचे हैं सभी कोई समर-दार नहीं

दिल की उफ़्ताद मिज़ाजी से परेशाँ हूँ मैं
थी तलब जिस की अब उस का ही तलबगार नहीं

अब जिसे देखो वही घूम रहा है बाँधे
दस्तियाब अब किसी दूकान पे दस्तार नहीं

ऐ ज़ुलेख़ा तू ने जो दाम लगाया अब के
उस पे यूसुफ़ तो कोई बिकने को तय्यार नहीं

आसमाँ छत है ज़मीं फ़र्श कुशादा है मकाँ
मेरा घर वो है कि जिस के दर-ओ-दीवार नहीं

है सुख़न-फ़हमी का हर शख़्स को दा'वा लेकिन
कौन ऐसा है जो 'ग़ालिब' का तरफ़-दार नहीं

ऐ 'कमाल' ऐसे में क्या लुत्फ़-ए-सफ़र पाओगे
राह में धूप नहीं संग नहीं ख़ार नहीं

- Ahmad Kamal Hashmi

Miscellaneous Shayari

Our suggestion based on your choice

More by Ahmad Kamal Hashmi

As you were reading Shayari by Ahmad Kamal Hashmi

Similar Writers

our suggestion based on Ahmad Kamal Hashmi

Similar Moods

As you were reading Miscellaneous Shayari