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थी तो ये एक बात ही पर संग-ए-मील थी  - Aila Tahir

थी तो ये एक बात ही पर संग-ए-मील थी
खोने का ख़ौफ़ उसे भी हिरासाँ किए रहा

बादल भरा-भराया न बरसा तो रंज क्या
इस धूप के सफ़र को तो आसाँ किए रहा

ये एक शय अलग से रग-ए-जाँ पे बार थी
इक लम्हा-ए-फ़िराक़ परेशाँ किए रहा

क्या मोड़ था कि ज़ब्त का यारा नहीं रहा
हालाँकि उम्र भर दिल-ए-नादाँ किए रहा

उस ग़म के क़रज़-दार हैं तीरा-शबों में भी
रद्द-ए-वफ़ा का दाग़ फ़रोज़ाँ किए रहा

कब आप जानते हैं कि इक दर्द मुस्तक़िल
पैमाँ की शाम शाम-ए-ग़रीबाँ किए रहा

- Aila Tahir

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