थी तो ये एक बात ही पर संग-ए-मील थी
खोने का ख़ौफ़ उसे भी हिरासाँ किए रहा
बादल भरा-भराया न बरसा तो रंज क्या
इस धूप के सफ़र को तो आसाँ किए रहा
ये एक शय अलग से रग-ए-जाँ पे बार थी
इक लम्हा-ए-फ़िराक़ परेशाँ किए रहा
क्या मोड़ था कि ज़ब्त का यारा नहीं रहा
हालाँकि उम्र भर दिल-ए-नादाँ किए रहा
उस ग़म के क़रज़-दार हैं तीरा-शबों में भी
रद्द-ए-वफ़ा का दाग़ फ़रोज़ाँ किए रहा
कब आप जानते हैं कि इक दर्द मुस्तक़िल
पैमाँ की शाम शाम-ए-ग़रीबाँ किए रहा
Our suggestion based on your choice
As you were reading Shayari by Aila Tahir
our suggestion based on Aila Tahir
As you were reading Miscellaneous Shayari