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बजा कि दुश्मन-ए-जाँ शहर-ए-जाँ के बाहर है  - Akhtar Hoshiyarpuri

बजा कि दुश्मन-ए-जाँ शहर-ए-जाँ के बाहर है
मगर मैं उस को कहूँ क्या जो घर के अंदर है

तमाम नक़्श परिंदों की तरह उतरे हैं
कि काग़ज़ों पे खिले पानियों का मंज़र है

मैं एक शख़्स जो कुम्बों में रह गया बट कर
मैं मुश्त-ए-ख़ाक जो तक़्सीम हो के बे-घर है

शजर कटा तो कोई घोंसला कहीं न रहा
मगर इक उड़ता परिंदा फ़ज़ा का ज़ेवर है

वो ख़ौफ़ है कि मकीं अपने अपने कमरों में हैं
वो हाल है कि बयाबाँ में वुस'अत-ए-दर है

कहीं भी पेड़ नहीं फिर भी पत्थर आए हैं
गली में कोई नहीं फिर भी शोर-ए-महशर है

मैं इस वसीअ जज़ीरे में वाहिद इंसाँ हूँ
कि मेरे चारों तरफ़ दश्त का समुंदर है

कोई भी ख़्वाब न ऊँची फ़सील से उतरा
मगर किरन के गुज़रने को रौज़न-ए-दर है

तमाम रौशनियाँ बुझ गई हैं बस्ती में
मगर वो दीप कि जिस का हवाओं में घर है

किसी से मुझ को गिला क्या कि कुछ कहूँ 'अख़्तर'
कि मेरी ज़ात ही ख़ुद रास्ते का पत्थर है

- Akhtar Hoshiyarpuri

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