चाहते हैं मगर नहीं हँसते
लोग जो ख़ास-कर नहीं हँसते
मैं जहाँ हूँ वहाँ नहीं होता
मुझपे उस दिन अगर नहीं हँसते
बेमुरव्वत हैं किस कदर ये लोग
मेरी नाकामी पर नहीं हँसते
जिंदगी फिर गुज़ारनी है कल
सोचकर रात भर नहीं हँसते
उनके मुँह से वफ़ा की बातें सुन
ख़ुद पे हँसते अगर नहीं हँसते
एक लकड़ी से ही बना आरा
तब से सारे शजर नहीं हँसते
इक तुम्हारे उदास होने से
अब नगर के नगर नहीं हँसते
गर पता होता हासिल-ए-मंज़िल
फिर तो हम रस्ते भर नहीं हँसते
गर्दिश-ए-वक़्त टूट जाता है
आप जब वक़्त पर नहीं हँसते
जानते हो तुम उसको वो हाँ बख़्त
तो मियाँ बख़्त पर नहीं हँसते
बात इंसान की तू करता है
पीछे रहकर सिफ़र नहीं हँसते
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