न लेवे गर ख़स-ए-जौहर तरावत सब्ज़ा-ए-ख़त से

  - Mirza Ghalib

न लेवे गर ख़स-ए-जौहर तरावत सब्ज़ा-ए-ख़त से
लगाए ख़ाना-ए-आईना में रू-ए-निगार आतिश

फ़रोग़-ए-हुस्न से होती है हल्ल-ए-मुश्किल-ए-आशिक़
न निकले शम्अ' के पा से निकाले गर न ख़ार आतिश

शरर है रंग बअ'द इज़हार-ए-ताब-ए-जल्वा-ए-तम्कीं
करे है संग पर ख़ुर्शीद आब-ए-रू-ए-कार आतिश

पनावे बे-गुदाज़-ए-मोम रब्त-ए-पैकर-आराई
निकाले क्या निहाल-ए-शम्अ बे-तुख़्म-ए-शरार आतिश

ख़याल-ए-दूद था सर-जोश-ए-साैदा-ए-ग़लत-फ़हमी
अगर रखती न ख़ाकिस्तर-नशीनी का ग़ुबार आतिश

हवा-ए-पर-फ़िशानी बर्क़-ए-ख़िर्मन-हा-ए-ख़ातिर है
ब-बाल-ए-शोला-ए-बेताब है परवाना-ज़ार आतिश

नहीं बर्क़-ओ-शरर जुज़ वहशत-ए-ज़ब्त-ए-तपीदन-हा
बिला गर्दान-ए-बे-परवा ख़रामी-हा-ए-यार आतिश

धुएँ से आग के इक अब्र-ए-दरिया-बार हो पैदा
'असद' हैदर-परस्तों से अगर होवे दो-चार आतिश

  - Mirza Ghalib

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