इन्तिज़ार अपना सर-ए-राह जता जाती है
आठ बजते ही वो दरवाज़े पे आ जाती है
क्यूँ मिरे इश्क़ का इतना वो अदब करती है
जो मिरे सामने नज़रों को झुका जाती है
जब भी बहनों से कलाई पे बँधा लूँ राखी
ख़ुश्क हाथों में नमी लौट के आ जाती है
उसको मालूम नहीं इश्क़ की तालीम है क्या
वो तो बस इश्क़ को इक ज़ुर्म बता जाती है
वो अगर सामने आई तो मिरा क्या होगा
जिसकी तस्वीर मुझे इतना सता जाती है
चाहते जब भी हुई उससे मिलाने को नज़र
वो मिरे सामने नज़रों को झुका जाती है
क्यूँ तअल्लुक़ न रखूँ उसकी निगाहों से 'समर'
जो इशारों में कई राज़ बता जाती है
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