तैश इन्सान को इस तरह से खा जाता है
जैसे तूफ़ान इमारत कोई ढा जाता है
तू है मुफ़्लिस के ग़म-ए-ज़ीस्त के शिकवों जैसा
लब पे आ-आ के तिरा ज़िक्र चला जाता है
तू अज़िय्यत मिरी आँखों से कभी पूछ के देख
रोज़ इक ख़्वाब तिरा नक़्श बना जाता है
मुद्दतों में ही कभी होता है रौशन ये दिल
वो भी झोंका तिरी यादों का बुझा जाता है
ये क़यामत तो किसी रोज़ को होनी ही है
तू अभी पर्दा उठा दे तिरा क्या जाता है
राख ही राख उड़ा करती है वीराने में
कोई ख़्वाबों को मिरे रोज़ जला जाता है
ग़ौर ख़ुद पर मुझे करने की ज़रूरत ही नहीं
जो भी मिलता है वो आईना दिखा जाता है
ज़ख़्म का जिस के भी करता हूँ मुदावा "हैदर"
मुझ को वो एक नया ज़ख़्म लगा जाता है
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