Ejazulhaq Shahab

Ejazulhaq Shahab

@ejazulhaq-shahab

Ejazulhaq Shahab shayari collection includes sher, ghazal and nazm available in Hindi and English. Dive in Ejazulhaq Shahab's shayari and don't forget to save your favorite ones.

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  • Ghazal
  • Nazm
आगे जो होगा वो होगा ख़ैर कर आया हूँ मैं
जो ज़बर बनते थे उन को ज़ेर कर आया हूँ मैं

हाँ बहुत मुश्किल तो है लेकिन ये ना-मुम्किन नहीं
दर्द की तुग़्यानियों में तैर कर आया हूँ मैं

मर गया है कोई मुझ में उस पे मिट्टी डालिए
अपनी सारी ख़्वाहिशों को ढेर कर आया हूँ मैं

दर्द वहशत रंज-ओ-ग़म तन्हाइयाँ शाम-ए-अलम
जो मुझे घेरे थीं उन को घेर कर आया हूँ मैं

वो जिसे पाने की हसरत दिल में मुद्दत से रही
उस के ही ख़ातिर उसे अब ग़ैर कर आया हूँ मैं

काम ये आसाँ नहीं इस में कलेजा चाहिए
इश्क़ की वादी से हाँ रुख़ फेर कर आया हूँ मैं

जाने किस की दीद की हसरत लिए दिल में 'शहाब'
दश्त-ओ-सहरा से भी आगे सैर कर आया हूँ मैं
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Ejazulhaq Shahab
इक आफ़्ताब का रंग एक माहताब का रंग
मिला के ढाला गया है तिरे शबाब का रंग

नुमायाँ जिस्म है और शोख़ है नक़ाब का रंग
बदल रहा है ज़माने में अब हिजाब का रंग

मिली नज़र जो मिरी दफ़अ'तन सर-ए-महफ़िल
हया से रुख़ पे तेरे आ गया गुलाब का रंग

निकल पड़े हैं जो जुगनू लिए हुए क़िंदील
उतर गया है तभी से इस आफ़्ताब का रंग

सुना है तख़्त लरज़ते हैं ताज हिलते हैं
जो हम ग़ज़ल में मिलाते हैं इंक़लाब का रंग

सलीक़ा ज़ीस्त को जीने का हम ने सीखा है
सरों पे जब से चढ़ा है तेरी किताब का रंग

वो पहले पहले से तेवर हवा हुए देखो
उड़ा उड़ा सा है कुछ दिन से अब जनाब का रंग

किसी के सर पे चढ़ा रंग 'मीर'-ओ-'ग़ालिब' का
किसी के सर पे चढ़ेगा कभी 'शहाब' का रंग
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Ejazulhaq Shahab
आज सुन ली है मिरे अहबाब ने मेरी ग़ज़ल
आज अपनी मंज़िल-ए-मक़्सूद पर पहुँची ग़ज़ल

जब सुनाई आप ने तो बा-अदब सुन ली ग़ज़ल
और जब कोशाँ हुआ तो बे-धड़क कह दी ग़ज़ल

ये लब-ओ-रुख़्सार ये चेहरा तेरा पुर-नूर सा
तुझ को क्या देखा लगा जैसे कोई देखी ग़ज़ल

कल जो देखी थी ग़ज़ल तो दिल की धड़कन रुक गई
आज जो देखी ग़ज़ल तो बन के दिल धड़की ग़ज़ल

ज़ुल्फ़ ऊला चश्म सानी क़ाफ़िया रुख़ लब रदीफ़
रब ने तुम को है तराशा या कोई लिक्खी ग़ज़ल

क़ाफ़िया रूठा हुआ था मुँह चिढ़ाती थी रदीफ़
तुम क्या रूठे रात भर थी रात भर रूठी ग़ज़ल

तहत में जब भी पढ़ी तो बन के निकली इंक़लाब
जब तरन्नुम में पढ़ी तो झूम उठी मेरी ग़ज़ल

हैं ये अस्नाफ़-ए-अदब जान-ए-सुख़न-दाँ शाइरी
नज़्म मेरी साँस है और ज़िंदगी मेरी ग़ज़ल

कह उठे हैं सब सुख़नवर अहल-ए-महफ़िल ये 'शहाब'
जो तेरे लब से हुई आख़िर वही ठहरी ग़ज़ल
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