Ejaz Farooqi

Ejaz Farooqi

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Ejaz Farooqi shayari collection includes sher, ghazal and nazm available in Hindi and English. Dive in Ejaz Farooqi's shayari and don't forget to save your favorite ones.

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  • Nazm
ये चटियल सरज़मीं
तुम को मिली
तो तुम ने बे-बर्ग-ओ-गयाह टीले पर
इक मा'बद बना डाला
और उस में एक बुत रक्खा
जिसे तुम ने तराशा
आदमी के उस्तुख़्वाँ से
जिस के चरनों में चढ़ावा लाए तुम
तो अपने भाई का
और उस के होंट अब तक ख़ून की लाली से रंगीं हैं
ज़बाँ अब तक लहू के ज़ाइक़े से तर है
लाओ और नज़राना
कि ये मा'बद है
मैं बुत हूँ
मिरे ही तुम पुजारी हो
ये चटियल सरज़मीं
मुझ को मिली
तो मैं ने भूरी चरचराती ख़ुश्क मिट्टी को पसीने की नमी बख़्शी
मिरे ख़ूँ की हरारत ने ज़मीं के संग-ए-यख़-बस्ता को पिघलाया
ज़मीं की छातियों से ज़ीस्त के सोते बहे
रंगों के चश्मे हर तरफ़ फूटे
ये धरती सब्ज़ चादर ओढ़ कर दुल्हन बनी निकली
और इस चादर में मैं ने नूर के धागे पिरो डाले
ये इक तुम हो
कि मेरे ख़ून से मा'बद बनाते हो
ये इक मैं हूँ
कि अपने नूर से धरती के मंदिर को सजाता हूँ
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Ejaz Farooqi
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वो एक पुल था
मिरे और अज्दाद के ज़मानों का नुक़्ता-ए-इत्तिसाल
उस की गुज़रगाहों से रिवायतों और हिकायतों के हज़ार-हा क़ाफ़िले निकल कर
नए ज़माने की यूरिशों से मिरी बिखरती अना में
उल्फ़त यक़ीन और ए'तिमाद के रंग भर गए हैं
वो एक पुल आज टूट कर गहरी घाटियों में गिरा है
अब मैं खड़ा हूँ
उन गहरी घाटियों पर
मैं एक पुल हूँ
वो एक बरगद था
जिस की छाँव में एक ठंडी मिठास थी
जिस ने जलते सूरज की हिद्दतें अपने जिस्म में जज़्ब कर के
उस की सुनहरी किरनों को ठंडी शबनम की तरह
मेरी उजाड़ आँखों में क़तरा क़तरा उतारा
वो आज हिद्दतों के वफ़ूर से जल गया
तो अब मैं ही एक बरगद हूँ
आने वालों के वास्ते एक ठंडी छाँव

वो एक जव्वाला था
वो भरपूर ज़ीस्त करने की एक सीमाबी आरज़ू
वो लहू की धड़कन
जो रात की ज़ुल्मतों पे शब-ख़ून मार कर
रौशनी और उम्मीद के दरीचों को खोलता
आज शब का सफ़्फ़ाक हाथ
उस के लहू की धड़कन को ले उड़ा
और अब फ़क़त मैं हूँ
रात की ज़ुल्मतों से पंजा-फ़गन
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Ejaz Farooqi
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तेरी तुर्बत
तेरी आवाज़ों का गुम्बद
एक वज़ीफ़ा
जिस से गुम्बद का पोशीदा दर खुल जाता
भूल गया था
उस की ख़ातिर जाने कितने वीराने और कितने बसेरे मैं ने छाने
पर वो मुक़द्दस पाँव की मिट्टी न मिल सकी
जिस को इस मूरत पर मलता
तो तेरी ही आवाज़ निकलती
तेरी चाँद सी आवाज़ों पर
पत्थर जैसा बादल
बरस बरस कर घुल जाता
तो चाँदनी मेरे भीतर की भसमाने वाली आग बुझाती
मेरा जिस्म भी
तेरी आवाज़ों का मरक़द
अंदर इक तूफ़ान था
आवाज़ों के शो'ले चटख़ रहे थे
बाहर
हू का आलम
तेरी आवाज़ों में रंग थे
मीठे ठंडे और रसीले
मेरी आवाज़ों में चीख़ें
तेरी आवाज़ों के रंग मैं जंगल जंगल ढूँड रहा था
आँख उठा कर देखा
तो तेरी ही आवाज़ों के रंग हैं
जो आकाश पे बिखरे पड़े हैं
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Ejaz Farooqi
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वो तीरगी भी अजीब थी
चाँदनी की ठंडी गुदाज़ चादर से सारा जंगल लिपट रहा था
गुलों के सद-रंग
धुँदले धुँदले से
जैसे इक सीम-तन के चेहरे के शोख़ ग़ाज़े पे
आँसुओं का ग़ुबार हो
पेड़, मुंतज़िर
अपनी नर्म शाख़ों के हाथ फैलाए
और कभी कोई शाख़ चटकी
तो साए निकले
मुलूक फूलों को चूम कर
चाँदनी की चादर पे नाचते थे
कहाँ से आई
वो इक किरन
जिस ने फैलती तीरगी की गँभीरता को चीरा
तो मेरे भीतर में एक किरनों का सिलसिला यूँ उतर रहा था
कि कोह-ए-आतिश-फ़शाँ से लावा नशेब को बह रहा हो
मेरे लहू से सोज उबल पड़े
जिन की तेज़ हिद्दत से तीरगी के मुहीब यख़-बस्ता संग पिघले
तो नूर के रास्तों का इक जाल खुल गया
मगर अभी तो मुहीब काले पहाड़ कुछ और भी नज़र आ रहे हैं
और मैं सफ़र की हिद्दत से जल रहा हूँ
ज़रा मैं अब चाँदनी की ठंडी गुदाज़-चादर में
दम तो ले लूँ
कहीं उबलती हुई ये आतिश
मुझे जला कर भस्म न कर दे
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Ejaz Farooqi
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(1)
मौसम-ए-सर्मा की ठिठुराती हुई शाम-ए-हज़ीं
चोटियों पर बर्फ़ की इक लाश
सारे पेड़ नंगे टुड-मुंड
सहन में वो चरमराते भूरे पत्तों का कफ़न
एक सन्नाटा
वो इक टहनी तड़ख़ कर गिर पड़ी
इक साँस टूटा
(२)
मैं ने कल ही अपने बूढे बाप के ठंडे बदन को
ग़ुस्ल दे के अपने हाथों
काली धरती के दहाने में उतारा
कि यही है रस्म
मैं ज़िंदा भी पामाल-ए-रुसूम
ज़िंदगी में वो चटकती रौशनी का एक मीनार-ए-बुलंद
उस की किरनों ने हज़ारों क़ुमक़ुमे रौशन किए
और ये रस्म-ए-ज़माना
उम्र-भर जो दूसरों को रौशनी देता रहा
इक अँधेरी क़ब्र इस के वास्ते
(३)
आने वाले मौसमों में सैंकड़ों ही टहनियाँ फूटेंगी
लेकिन जिस जगह उस पेड़ से ये शाख़ टूटी
वो निशाँ इक दायरा बन कर रहेगा
मैं ने जिन हाथों से अपने बाप के ठंडे बदन को
काली धरती के दहाने में उतारा
उस की पोरों से वो बूढ़ी धड़कनें क़िर्तास पर बहती रहेंगी
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Ejaz Farooqi
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कल जो क़ब्रिस्तान से लौटा
तो तन्हाई का इक बोझ उठा कर लाया
ऐसे लगता था कि मैं बुझता दिया हूँ
और सब लोग तमाशाई हैं
मुंतज़िर हैं कि मेरे बुझने का मंज़र देखें
ऐसे लगता था कि हर गाम पर खुलते दहाने हैं
मेरे जिस्म को आग़ोश में लेने के लिए
ज़िंदगी दूर खड़ी हँसती रही
क़हक़हों का इक समुंदर
मेरी जानिब मौज-दर-मौज बढ़ा
शब का सन्नाटा
फ़लक-बोस इमारात के डरबों में वो हिलते हुए साए
जैसे मरघट का समाँ हो
रास्ते नाग की मानिंद दहाने खोले
कहीं फ़ुट-पाथ पे लेटे हुए बे-जान से जिस्म
जिन पे खम्बे यूँ खड़े थे
जैसे ये कत्बे गड़े हों
फिर अचानक वो बर्कों की क्रीच
सुर्ख़-ख़ूँ का एक फव्वारा
वो इक कुत्ते की लाश
ज़िंदगी एक तिलिस्मात-कदा
जिस की दीवारों की ज़ीनत के लिए
लम्हों की रंगी तितलियाँ पत्थर हुईं
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Ejaz Farooqi
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तू है इक ताँबे का थाल
जो सूरज की गर्मी में सारा साल तपे
कोई हल्का नीला बादल जब उस पर बूँदें बरसाए
एक छनाका हो और बूँदें बादल को उड़ जाएँ
ताँबा जलता रहे
वो है इक बिजली का तार
जिस के अंदर तेज़ और आतिशनाक इक बर्क़ी-रौ दौड़े
जो भी उस के पास से गुज़रे
उस की जानिब खींचता जाए
उस के साथ चिमट के मौत के झूले झूले
बर्क़ी-रौ वैसी ही सुरअत और तेज़ी से दौड़ती जाए
मैं हों बर्ग-ए-शजर
सूरज चमके मैं उस की किरनों को अपने रूप में धारूँ
बादल बरसे मैं उस की बूँदें अपनी रग रग में उतारूँ
बाद चले मैं उस की लहरों को नग़्मों में ढालूँ
और ख़िज़ाँ आए तो उस के मुँह में अपना रस टपका कर पेड़ से उतरूँ
धरती में मुदग़म हो जाऊँ
धरती जब मुझ को उगले तो पौदा बन कर फूटूँ
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