Habeeb Ahmad Siddiqui

Habeeb Ahmad Siddiqui

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Habeeb Ahmad Siddiqui shayari collection includes sher, ghazal and nazm available in Hindi and English. Dive in Habeeb Ahmad Siddiqui's shayari and don't forget to save your favorite ones.

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ख़िज़ाँ-नसीब की हसरत ब-रू-ए-कार न हो
बहार शो'बदा-ए-चश्म-ए-इन्तिज़ार न हो

फ़रेब-ख़ूर्दा-ए-उल्फ़त से पूछिए क्या है
वो एक अहद-ए-मोहब्बत कि उस्तुवार न हो

नज़र को ताब-ए-नज़ारा न दिल को जुरअत-ए-दीद
जमाल-ए-यार से यूँ कोई शर्मसार न हो

क़बा-दरीदा-ओ-दामान-ओ-आस्तीं ख़ूनीं
गुलों के भेस में ये कोई दिल-फ़िगार न हो

न हो सकेगा वो रम्ज़-आश्ना-ए-कैफ़-ए-हयात
जो क़ल्ब चश्म-ए-तग़ाफ़ुल का राज़दार न हो

तरीक़-ए-इश्क़ पे हँसती तो है ख़िरद लेकिन
ये गुमरही कहीं मंज़िल से हम-कनार न हो

न ता'ना-ज़न हो कोई अहल-ए-होश मस्तों पर
कि ज़ोम-ए-होश भी इक आलम-ए-ख़ुमार न हो

वो क्या बताए कि क्या शय उमीद होती है
जिसे नसीब कभी शाम-ए-इंतिज़ार न हो

ये चश्म-ए-लुत्फ़ मुबारक मगर दिल-ए-नादाँ
पयाम-ए-इश्वा-ए-रंगीं सला-ए-दार न हो

किसी के लब पे जो आए नवेद-ए-ज़ीस्त बने
वही हदीस-ए-वफ़ा जिस पे ए'तिबार न हो

जो दो-जहान भी माँगे तो मैं ने क्या माँगा
वो क्या तलब जो ब-क़द्र-ए-अता-ए-यार न हो
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Habeeb Ahmad Siddiqui
ये ग़म नहीं है कि अब आह-ए-ना-रसा भी नहीं
ये क्या हुआ कि मिरे लब पे इल्तिजा भी नहीं

सितम है अब भी उमीद-ए-वफ़ा पे जीता है
वो कम-नसीब कि शाइस्ता-ए-जफ़ा भी नहीं

निगाह-ए-नाज़-ए-इबारत है ज़िंदगी जिस से
शरीक-ए-दर्द तो क्या दर्द-आश्ना भी नहीं

समझ रहा हूँ अमानत मता-ए-सब्र को मैं
अगरचे अब निगह-ए-सब्र-आज़मा भी नहीं

वो कारवान-ए-निशात-ओ-तरब कहाँ हमदम
जो ढूँढिए तो कहीं कोई नक़्श-ए-पा भी नहीं

है दिल के वास्ते शम-ए-उमीद-ओ-मशअ'ल-ओ-राह
वो इक निगाह जिसे दिल से वास्ता भी नहीं

कोई तबस्सुम-ए-जाँ-बख़्श को तरसता है
शहीद-ए-इश्वा-ए-रंगीं का ख़ूँ-बहा भी नहीं

ये क्यूँ है शो'ला-ए-बेताब की तरह मुज़्तर
मिरी नज़र कि अभी लुत्फ़-आश्ना भी नहीं

ब-शक्ल-ए-क़िस्सा-ए-दार-ओ-रसन न हो मशहूर
वो इक फ़साना-ए-ग़म तुम ने जो सुना भी नहीं

तमाम हर्फ़-ओ-हिकायत मिटा गई दिल से
निगाह-ए-नाज़ ने कहने को कुछ कहा भी नहीं

वो कुश्ता-ए-करम-ए-यार क्या करे कि जिसे
ब-ईं तबाही-ए-दिल शिकवा-ए-जफ़ा भी नहीं
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Habeeb Ahmad Siddiqui
दुनिया को रू-शनास-ए-हक़ीक़त न कर सके
हम जितना चाहते थे मोहब्बत न कर सके

सामान-ए-गुल-फ़रोशी-ए-राहत न कर सके
राहत को हम शरीक-ए-मोहब्बत न कर सके

यूँ कसरत-ए-जमाल ने लूटी मता-ए-दीद
तसकीन-ए-तिश्ना-कामी-ए-हैरत न कर सके

अब इश्क़-ए-खाम-कार ही अरमाँ को दे जवाब
हम उन को बे-क़रार-ए-मोहब्बत न कर सके

बे-मेहरियों से काम रहा गो तमाम-उम्र
बे-मेहरियों को सहने की आदत न कर सके

कुछ ऐसी इल्तिफ़ात-नुमा थी निगाह-ए-दोस्त
होते रहे तबाह शिकायत न कर सके

नाकामियाँ तो फ़र्ज़ अदा अपना कर गईं
हम हैं कि ए'तिराफ़-ए-हज़ीमत न कर सके

फ़ख़्र-ए-मुनासिबत में तिरा नाम ले लिया
हम ख़ुद ही पर्दा-ए-दारी-ए-उलफ़त न कर सके

हर-चंद हाल-ए-दीदा-ओ-दिल हम कहा किए
तशरीह-ए-कैफ़ियात-ए-मोहब्बत न कर सके

अफ़्लाक पर तो हम ने बनाईं हज़ार-हा
ता'मीर कोई दहर में जन्नत न कर सके

हमसाएगी-ए-ज़ाहिद-ए-बद-ख़ू के ख़ौफ़ से
परवरदिगार तेरी इबादत न कर सके
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Habeeb Ahmad Siddiqui
नवेद-ए-आमद-ए-फ़स्ल-ए-बहार भी तो नहीं
ये बे-दिली है कि अब इंतिज़ार भी तो नहीं

जो भूल जाए कोई शग़्ल-ए-जाम-ओ-मीना में
ग़म-ए-हबीब ग़म-ए-रोज़गार भी तो नहीं

मरीज़-ए-बादा-ए-इशरत ये इक जहाँ क्यूँ है
सुरूर-ए-बादा ब-कद्र-ए-ख़ुमार भी तो नहीं

मता-ए-सब्र-ओ-सुकूँ जिस ने दिल से छीन लिया
वो दिल-नवाज़ अदा-आश्कार भी तो नहीं

क़फ़स में जी मिरा लग तो नहीं गया हमदम
कि अब वो नाला-ए-बे-इख़्तयार भी तो नहीं

है ऐन वस्ल में भी पुर-ख़रोश-ए-परवाना
सुकून-ए-क़ल्ब ब-आग़ोश-ए-यार भी तो नहीं

निगाह-ए-नाज़ कि बेगाना-ए-मुहब्बत है
सितम तो ये है कि बे-गाना-वार भी तो नहीं

वो एक रहबर-ए-नादाँ कि जिस को इश्क़ कहें
डुबो के कश्ती-ए-दिल शर्मसार भी तो नहीं

जुनूँ को दर्स-ए-अमल दे के क्या करे कोई
ब-क़द्र-ए-हौसला-ए-दिल बहार भी तो नहीं
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Habeeb Ahmad Siddiqui
जबीं-ए-नवाज़ किसी की फ़ुसूँ-गरी क्यूँ है
सरिश्त-ए-हुस्न में इस दर्जा दिलकशी क्यूँ है

किसी की सादा जबीं क्यूँ बनी है सेहर-तराज़
किसी की बात में एजाज़-ए-ईसवी क्यूँ है

किसी की ज़ुल्फ़-ए-मोअ'म्बर में क्यूँ है गीराई
फ़िदा-ए-गेसू-ए-मुश्कीं ये ज़िंदगी क्यूँ है

तिरे शिआ'र-ए-तग़ाफ़ुल पे ज़िंदगी क़ुर्बां
तिरे शिआ'र-ए-तग़ाफ़ुल में दिलकशी क्यूँ है

कहीं ज़िया-ए-तबस्सुम न हो करम-फ़रमा
जुमूद-ए-क़ल्ब में हैजान-ए-ज़िंदगी क्यूँ है

ये कब कहा है कि तुम वज्ह-ए-शोरिश-ए-दिल हो
ये पूछता हूँ कि दिल में ये बेकली क्यूँ है

निगाह-ए-नाज़ कि वाबस्ता-ए-जिगर थी कभी
बता फ़रेब-ए-तमन्ना कि सरसरी क्यूँ है

भटक भटक के मैं नाकाम-ए-जुस्तुजू ही रहा
ख़मोश मेरे लिए शम-ए-रहबरी क्यूँ है

हयात-ओ-मौत न अपनी न मैं ही ख़ुद अपना
मिरे वजूद पे इल्ज़ाम-ए-ज़िंदगी क्यूँ है

रग-ए-हयात में दौड़ा के बर्क़-ए-सरताबी
ख़ता-मुआफ़ ये इल्ज़ाम-ए-ख़ुद-सरी क्यूँ है

बिसात-ए-दहर सही जल्वा-गाह-ए-हुस्न-ए-अज़ल
निगाह-ए-शौक़ फ़ुग़ाँ-संज-ए-तिश्नगी क्यूँ है
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Habeeb Ahmad Siddiqui
और ऐ चश्म-ए-तरब बादा-ए-गुलफ़ाम अभी
दिल है बे-गाना-ए-अंदेशा-ए-अंजाम अभी

बादा-ए-ओ-साक़ी-ओ-मुतरिब का न लो नाम अभी
गर्द-आलूद है आईना-ए-अय्याम अभी

दिल है मजरूह पर-ओ-बाल शिकस्ता हमदम
दाम से छूट के भी हूँ मैं तह-ए-दाम अभी

मानी-ओ-मक़सद-ए-हस्ती का समझना मा'लूम
अक़्ल है सिर्फ़ परस्तारी-ए-औहाम अभी

इशरत-ए-जल्वा-ए-बे-बाक मुबारक ऐ इश्क़
दीदा-ओ-दिल हैं मगर तिश्ना-ए-पैग़ाम अभी

ग़म नहीं सब पे अगर चश्म-ए-करम है तेरी
ग़म तो ये है कि सितम भी है तिरा आम अभी

ऐ सुबुक-सैर-ए-नज़र एक पयाम-ए-रंगीं
है हरीफ़-ए-ग़म-ए-दिल गर्दिश-ए-अय्याम अभी

दावत-ए-शौक़ ब-उन्वान-ए-सितम भी तो नहीं
उस पे इल्ज़ाम कि है जज़्बा-ए-दिल ख़ाम अभी

तू ने क्या चीज़ बना दी निगह-ए-सेहर-तराज़
वो जो थी शीशा-ए-दिल में मय-ए-बे-नाम अभी

ज़िंदगी मंज़िल-ए-मक़्सूद से आगाह नहीं
उस की मेराज है परवाज़ सर-ए-बाम अभी

किस को ये होश कि पैग़ाम-ए-मोहब्बत समझे
दिल है वारफ़्ता-ए-रंगीनी-ए-पैग़ाम अभी
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Habeeb Ahmad Siddiqui
मुझ को दिमाग़-ए-शेवन-ओ-आह-ओ-फ़ुग़ाँ नहीं
इक आतिश-ए-ख़मोश हूँ जिस में धुआँ नहीं

किस सादगी से कहते हो हम राज़-दाँ नहीं
वो कौन सा है राज़ जो तुम पर अयाँ नहीं

वो दुश्मन-ए-सुकून-ए-दिल-ओ-जाँ यही न हो
मा'सूम सी निगाह कि जिस पर गुमाँ नहीं

है आग सी लगी हुई रग रग में क्या कहूँ
इक चश्म-ए-इन्तिज़ार ही याँ ख़ूँ-चकाँ नहीं

यूँ देखता हूँ बर्क़ को अल्लाह रे बे-दिली
जैसे कहीं चमन में मिरा आशियाँ नहीं

इस चश्म-ए-नाज़ की कोई देखे फ़ुसूँ-गरी
बार-ए-हयात भी मुझे अब तो गराँ नहीं

ऐ मस्त-ए-नाज़ मश्क़-ए-सितम इस से भी सिवा
ऐ ज़ौक़-ए-दर्द हैफ़ अगर जावेदाँ नहीं

ऐ दिल सर-ए-नियाज़ को क्या क़ैद-ए-संग-ओ-दर
का'बा ही क्या बुरा है जो वो आस्ताँ नहीं

की फ़ुर्सत-ए-हयात तिरी जुस्तुजू में सिर्फ़
ऐ वाए गर हनूज़-ए-वफ़ा का गुमाँ नहीं
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Habeeb Ahmad Siddiqui
वो दर्द-ए-इश्क़ जिस को हासिल-ए-ईमाँ भी कहते हैं
सियह-बख़्तों में उस को गर्दिश-ए-दौराँ भी कहते हैं

जो आग़ोश-ए-हया में एक दिल-आवेज़ नश्तर है
इसी मौज-ए-नज़र को गुलशन-ए-ख़ंदाँ भी कहते हैं

हिजाबात-ए-नज़र जल्वों की बेबाकी से क्या उट्ठें
मोहब्बत की नज़र को दीदा-ए-हैराँ भी कहते हैं

न खुलवाएँ ज़बाँ अच्छा यही है हज़रत-ए-ज़ाहिद
कि इस तर्क-ए-तलब को हसरत-ए-इस्याँ भी कहते हैं

किसी के वास्ते सर्माया-ए-दुनिया-ओ-दीं ठहरें
वही नज़रें जिन्हें ग़ारत-गर-ए-ईमाँ भी कहते हैं

जो दिल मामूरा-ए-सद-हसरत-ओ-यास-ओ-तमन्ना है
तअ'ज्जुब है उसी को ख़ाना-ए-वीराँ भी कहते हैं

ग़लत-अंदाज़ सी नज़रें तबस्सुम बे-नियाज़ाना
तग़ाफ़ुल-केशियों को दावत-ए-अरमाँ भी कहते हैं

जहान-ए-आब-ओ-गिल को जिस ने ज़ौक़-ए-ज़िंदगी बख़्शा
उसे ऐ हज़रत-ए-नासेह दिल-ए-नादाँ भी कहते हैं

है जिस के दम से दुनिया-ए-मोहब्बत जन्नत-ए-अरमाँ
उसी जान-ए-तरब को फ़ित्ना-ए-दौराँ भी कहते हैं
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