किधर किन रास्तों से यूँ तू तन्हा हो के गुज़री है
मैं उन झीलों का पानी हूँ तू जिनमें रो के गुज़री है
समंदर क़ैद था सीने में मेरे फिर हुआ ऐसा
नमक में तू भी अपने ज़ख़्म सारे धो के गुज़री है
बहुत बेचैन गुज़रे हैं मेरे दिन और मेरी रातें
कहानी किस गली की थी कहाँ से हो के गुज़री है
गुज़रना था हमें जिन रास्तों से साथ में मुर्शद
ये दुनिया अब वहाँ पर कितने काँटें बो के गुज़री है
कहीं जो हम दिखाई दें तो ख़ामोशी से चल देना
समझना हम नहीं वो इश्क़ जो तू खो के गुज़री है
मैं रस्ते देखते रह जाऊँगा और तू भी मत आना
नदी भी क्या कभी इन बंजरों से हो के गुज़री है
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