बिछड़ के हमसे न जाने किधर गया होगा
वो रेत बनके कहीं पर बिखर गया होगा
वो चाँद पे जो नज़र आती है ख़ूँ की लाली
किसी का इश्क़ हदों से गुज़र गया होगा
लगा के आग सभी हुस्न-आफ़रीनों को
तुम्हारे शहर का मौसम सुधर गया होगा
जगह जगह जो मोहब्बत का राग गाता था
वो शख़्स वक़्त से पहले ही मर गया होगा
जिसे कभी जाँ से ज़्यादा अज़ीज़ लगते थे हम
अब उस के दिल में कोई और उतर गया होगा
निशाँ जो इश्क़ का गर्दन पे छोड़ता था वो
बदन को चूमने से क्या निखर गया होगा
हमीं थे जो चले जाते थे उनके कूचे में
हमारे बाद न कोई उधर गया होगा
कुछ इसलिए भी हाँ मजनूँ को मारे थे पत्थर
ज़माना इश्क़ की जुर्रत से डर गया होगा
मेरे सिवा किसी को चाहती रही हो तुम
ये दिल जवानी में नादानी कर गया होगा
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