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न गुल ख़ंदाँ न बुलबुल नग़्मा-ख़्वाँ है  - Akhlaque Bandvi

न गुल ख़ंदाँ न बुलबुल नग़्मा-ख़्वाँ है
अरे गुलचीं ये नज़्म-ए-गुलसिताँ है

चमन में फिर बनाता हूँ नशेमन
सुना है मुज़्महिल बर्क़-ए-तपाँ है

जिसे कहते थे हम सोने की चिड़िया
ये भारत क्या वही हिन्दोस्ताँ है

सदा आती है पैहम ठोकरों से
ये संग-ए-रहगुज़र मंज़िल-रसाँ है

ग़लत सम्त-ए-सफ़र का है ये हासिल
न जादा है न मंज़िल का निशाँ है

मुझे तार-ए-शब-ए-फ़ुर्क़त का ग़म क्या
बहम इक शम्अ'-ए-याद-ए-रफ़्तगाँ है

सुनाएँ किस को हाल-ए-दिल हम अपना
न महरम है न कोई राज़-दाँ है

तिरी यादों का मौसम है नज़र में
कहीं सहरा में इक दरिया रवाँ है

- Akhlaque Bandvi

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