Akhlaque Bandvi

Akhlaque Bandvi

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Akhlaque Bandvi shayari collection includes sher, ghazal and nazm available in Hindi and English. Dive in Akhlaque Bandvi's shayari and don't forget to save your favorite ones.

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  • Ghazal
रोज़-ए-रौशन को जो निस्बत है सियह रात के साथ
उस ने रिश्ता वही रखा है मिरी ज़ात के साथ

कुछ न था बख़्त में नाकाम मोहब्बत के सिवा
ज़िंदगी काट दी मैं ने इसी सौग़ात के साथ

शब की शब एक चराग़ाँ का समाँ रहता है
शाम आ जाती है जब तेरे ख़यालात के साथ

अब्र-ए-ग़म दिल से उठे अज़-सर-ए-मिज़्गाँ बरसे
चश्म-ए-गिर्यां को अजब रब्त है बरसात के साथ

कर्ब यादों का रहा दर्द भुलाने का रहा
रंज क्या क्या न सहे गर्दिश-ए-हालात के साथ

शैख़ जी आप ने दर-बंदगी सज्दे ही गिने
दिल की ततहीर भी लाज़िम थी इबादात के साथ

मुतरिबा कौन सुने है तिरी चीख़ों की सदा
लब-ए-ल'अलीं पे थिरकते हुए नग़्मात के साथ

और तो काम सभी हो गए पूरे 'अख़लाक़'
दिल-लगी रह गई इक मर्ग-ए-मुफ़ाजात के साथ
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Akhlaque Bandvi
डोरे डाले लाल परी है आँखों में
सो भी जाओ नींद भरी है आँखों में

फिर मय्यत के बार से पलकें बोझल हैं
फिर कोई उम्मीद मिरी है आँखों में

दीदा-वरी के सब क़िस्से उन से मंसूब
अपनी सर्वत-ए-कम-नज़री है आँखों में

आँखों में कटती है शब वो क्या जानें
बे-ख़बरी सी बे-ख़बरी है आँखों में

एक नज़र में दिल का सब आज़ार गया
यार ग़ज़ब की चारागरी है आँखों में

दिल का ताइर अब भी नग़्मे गाता है
शायद कोई शाख़ हरी है आँखों में

चार हुईं तो रस्ते की दीवार हुईं
क्या नज़रों की राहबरी है आँखों में

नींद में भी उन की पलकें वा रहती हैं
जाने किस की मुंतज़री है आँखों में

मेरी राहत मेरा हज़ मेरा आराम
सारी दौलत तू ने धरी है आँखों में
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Akhlaque Bandvi
शाम तक ऐसा थकन से चूर हो जाता हूँ मैं
जिस्म से बानू-ए-शब काफ़ूर हो जाता हूँ मैं

तेरे जल्वों से कभी जब दूर हो जाता हूँ मैं
अपनी आँखों के लिए बे-नूर हो जाता हूँ मैं

लोग हो जाते हैं वामिक़ लोग हो जाते हैं क़ैस
इंतिहा-ए-इश्क़ में मंसूर हो जाता हूँ मैं

चाहता तो हूँ करूँ ख़ल्क़-ए-जहाँ पर ग़ौर-ओ-ख़ौज़
दर-गुज़र ऐ रब्ब-ए-कुल मसहूर हो जाता हूँ मैं

जब भी सुनता हूँ ज़बान-ए-ग़ैर से अपनी सिफ़ात
सच कहूँ थोड़ा बहुत मग़रूर हो जाता हूँ मैं

मेरी आँखें कर रही होती हैं जब दीदार-ए-यार
अपने पैकर में सरापा तूर हो जाता हूँ मैं

शहर में साहिब बना फिरता हूँ किस किस रंग से
गाँव जा कर फिर वही मज़दूर हो जाता हूँ मैं

मिल ही जाती है हिसार-ए-दर्द से मुझ को नजात
फिर हिसार-ए-दर्द में महसूर हो जाता हूँ मैं

आदमी 'अख़लाक़' मैं अच्छा हूँ इस में शक नहीं
हाँ कभी हालात से मजबूर हो जाता हूँ मैं
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Akhlaque Bandvi
यहाँ भी तू है वहाँ भी तू है कहाँ नहीं है किधर नहीं है
न फिर भी देखे जो तेरा जल्वा वो शख़्स अहल-ए-नज़र नहीं है

वो कअ'र-ए-दरिया हो या किनारा हर एक जा मैं ने छान मारा
मिज़ा पे लर्ज़ां सरिश्क जैसा कहीं भी कोई गुहर नहीं है

बदन अगरचे जवाँ जवाँ है रगों के अंदर लहू रवाँ है
फ़ुज़ूल सब है जो बहर-ए-दिल में ज़ुहूर-ए-मद्द-ओ-जज़र नहीं है

हुज़ूर चलिए सँभल सँभल के क़दम ज़रा और हल्के हल्के
ख़याल रखिए ये मेरा दिल है ये आप की रहगुज़र नहीं है

गई बहारों के राग छेड़ो ख़िज़ाँ रुतों की परत उधेड़ो
तुम्हारी बज़्म-ए-तरब में साक़ी अभी मिरी चश्म-ए-तर नहीं है

मैं अपना हर काम अपनी हद में बड़े तयक़्क़ुन से कर रहा हूँ
मिरी लुग़त के किसी वरक़ पर अगर नहीं है मगर नहीं

अभी तलक उस के रू-ए-ज़ेबा पे मेरी नज़रें टिकी हुई हैं
उसे भी है ये गुमान-ए-ग़ालिब कि आइने को ख़बर नहीं है

जो बद-चलन था ज़माने भर का वही फ़ज़ीलत-मआ'ब ठहरा
उसी को दस्तार दी गई है कि जिस के शाने पे सर नहीं है

कभी जो घर से सफ़र पे निकलो ये बात क़िर्तास-ए-दिल पे लिख लो
कि हर शरीक-ए-सफ़र हमारा हक़ीक़तन हम-सफ़र नहीं है

इसी में 'अख़लाक़' उम्र भर की मसाफ़तों का है राज़ पिन्हाँ
ये एक लम्हा जो वस्ल का है ये साअ'त-ए-मुख़्तसर नहीं है
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Akhlaque Bandvi
मैं ज़ेर-ए-साया कहीं महव-ए-ख़्वाब था भी नहीं
कि आ के धूप जगाती मैं जागता भी नहीं

हरीम-ए-नाज़ मिरी दस्तरस से दूर तो है
मिरे जहान-ए-तख़य्युल से मावरा भी नहीं

यही है अद्ल तो ऐसे निज़ाम-ए-अद्ल पे ख़ाक
है फ़र्द-ए-जुर्म भी आएद मिरी ख़ता भी नहीं

हम अपनी जान के दुश्मन को अपना दोस्त कहें
हमारे पास कोई और रास्ता भी नहीं

हम आ के अपने घरों में सुकूँ से बैठ गए
बईं-हमा कोई ख़तरा अभी टला भी नहीं

कहाँ पे लाई है ये शब-गज़ीदगी हम को
चराग़ बुझ भी गए मुश्तइ'ल हवा भी नहीं

असा को डाल दें दरिया में रास्ता हो जाए
हमारे पास कोई ऐसा मो'जिज़ा भी नहीं

इसी जहान में 'अख़लाक़' ऐसे लोग भी हैं
जो नेक भी हैं और उन का कोई ख़ुदा भी नहीं
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