ख़िज़ाँ में आग लगाओ बहार के दिन हैं
नए शगूफ़े खिलाओ बहार के दिन हैं
उलट दो तख़्ता ख़िज़ाँ की तबाह-कारी का
बिसात-ए-ऐश बिछाओ बहार के दिन हैं
एज़ार-ए-गुल की दहक से जला के काँटों को
लगी दिलों की बुझाओ बहार के दिन हैं
मिला के क़तरा-ए-शबनम में रंग ओ निकहत-ए-गुल
कोई शराब बनाओ बहार के दिन हैं
भरे कटोरे चमन के ये दर्स देते हैं
छलकते जाम लूंढाओ बहार के दिन हैं
अब एहतियात-पसंदी है सई-ए-ना-मशकूर
मता-ए-ज़ब्त लुटाओ बहार के दिन हैं
शरार-ए-गुल से ज़माने में शोले भड़का दो
हसीन फ़ित्ने जगाओ बहार के दिन हैं
जुनून-ए-शौक़ की बे-ए'तिदालियों के ख़िलाफ़
कोई दलील न लाओ बहार के दिन हैं
पुरानी शमएँ बुझा दीं सबा के झोंकों ने
नए चराग़ जलाओ बहार के दिन हैं
लचक रही है वफ़ूर-ए-समर से शाख़-ए-हयात
ये बार हँस के उठाओ बहार के दिन हैं
जनाब-ए-अख़तर-ए-जाँ-दादा-ए-रुख़-ए-गुल को
इमाम-ए-वक़्त बनाओ बहार के दिन हैं
Our suggestion based on your choice
As you were reading Shayari by Akhtar Ansari
our suggestion based on Akhtar Ansari
As you were reading Miscellaneous Shayari