Al-Haaj Al-Hafiz

Al-Haaj Al-Hafiz

@al-haaj-al-hafiz

Al-Haaj Al-Hafiz shayari collection includes sher, ghazal and nazm available in Hindi and English. Dive in Al-Haaj Al-Hafiz's shayari and don't forget to save your favorite ones.

Followers

0

Content

11

Likes

0

Shayari
Audios
  • Ghazal
उलझे न इश्क़ से कहो दैर-ओ-हरम से क्या ग़रज़
पीर-ए-मुग़ाँ से काम क्या नक़्श-ए-क़दम से क्या ग़रज़

अपने शरीक भी नहीं ग़ैरों को हम से क्या ग़रज़
सच है किसी को सोज़-ए-दिल दीदा-ए-नम से क्या ग़रज़

सुन लो मरीज़-ए-इश्क़ का अब तो इलाज हो चुका
ख़ुद ही मसीहा जब कहे ऐसे को दम से क्या ग़रज़

पेशा हो जिस का कीना-ओ-जौर-ओ-जफ़ा तो है बजा
जल्वा-फ़गन हो किस लिए मेहर-ओ-करम से क्या ग़रज़

सदक़े हज़ार बार हुए कहने पे जिस के मर-मिटे
फिर भी न वो मिरे हुए कहते हैं हम से क्या ग़रज़

महफ़िल-ए-दिलरुबा में क्यों चर्चा मिरा कोई करे
मेरे रक़ीब को मिरे रंज-ओ-अलम से क्या ग़रज़

जाम-ए-शराब कौन दे रिंदों को अपनी है पड़ी
ख़ुम से लगे हैं शैख़ जी साक़ी को हम से क्या ग़रज़

कोई बुलाने आए क्यों घर से हमें ले जाए क्यों
पीर-ए-मुग़ाँ तो हम नहीं रिंदों को हम से क्या ग़रज़

ज़ाहिद-ए-सादा-लौह क्यों तक़वे पे तुझ को नाज़ यूँ
तेरे ख़ुदा को ना-समझ तौफ़-ए-हरम से क्या ग़रज़
Read Full
Al-Haaj Al-Hafiz
ये कैसे लोग हैं जो राह में नाचार बैठे हैं
बड़े नादाँ मुसाफ़िर हैं कि हिम्मत हार बैठे हैं

अगर पहलू से वो उट्ठे तो दिल अपना न क्यों बैठे
ग़रज़ मरने को हर सूरत से हम तय्यार बैठे हैं

ज़माने ने न दी फ़ुर्सत जो हम ख़िदमत बजा लाते
किसी ने कब हमें देखा कि हम बे-कार बैठे हैं

किसे फ़ुर्सत ख़बर ले दर्द-मंदों की शब-ए-ग़म में
हज़ारों बार उट्ठे हैं हज़ारों बार बैठे हैं

कभी उट्ठे तो गर्म-ए-जुस्तुजू-ए-दोस्त में उट्ठे
कभी बैठे तो महव-ए-आरज़ू-ए-यार बैठे हैं

जुनून-ए-इश्क़ में सहरा-नवर्दी चाक-दामानी
यही सब कर के गोया थक गए बे-कार बैठे हैं

न राहों से शनासाई न रहबर से तआ'रुफ़ है
हज़ारों जुस्तुजुएँ कर के हिम्मत हार बैठे हैं

अजब ये रंग-ए-महफ़िल है कहें तो क्या कहें हमदम
बहर-सूरत हम उस की बज़्म में बेज़ार बैठे हैं

कभी 'दीवान' से देखा नहीं ख़ाली हो मय-ख़ाना
जहाँ भी देखिए जा कर वहीं सरकार बैठे हैं
Read Full
Al-Haaj Al-Hafiz
जिस घड़ी अक़्ल ने कुछ होश में लाना चाहा
दिल ने दीवाना मुझे और बनाना चाहा

दिल से मजबूर हुए गरचे भुलाना चाहा
राज़-ए-उल्फ़त न छुपा लाख छुपाना चाहा

ज़हर सी चीज़ भी ढूँढे से नहीं है मिलती
मैं ने घबरा के कभी ज़हर जो खना चाहा

अब तो जीना है बहर-हाल मुझे हीन-ए-हयात
ज़ालिम इस मौत ने क्या क्या न बहाना चाहा

नीची नज़रों के सलाम आए मुसलसल उस दम
उठ के महफ़िल से कभी मैं ने जो जाना चाहा

बख़्शी फ़ितरत में लचक कितनी ख़ुदा ने देखो
सर-बुलंद और हुआ जिस ने गिराना चाहा

दर्द अंदोह अलम और जमे बैठे रहे
शाम-ए-फ़ुर्क़त में उन्हें जितना भगाना चाहा

उस की मिट्टी हुई बर्बाद गया जान से वो
जिस ने कूचे में तिरे आ के ठिकाना चाहा

कौन कहता है कि तदबीर से तक़दीर बने
न बनी हम ने उसे लाख बनाना चाहा

एक हम ही तो नहीं अहल-ए-हुनर थे फिर क्यों
अहल-ए-महफ़िल ने मुझे सद्र बनाना चाहा

यूँ भी फ़नकारों में 'दीवान' की इज़्ज़त है मगर
शायरी ने उसे कुछ और बढ़ाना चाहा
Read Full
Al-Haaj Al-Hafiz
आज रोता है मिरे दिल को जलाने वाला
पानी को दौड़ता है आग लगाने वाला

कब वो हम को भला ख़ातिर में है लाने वाला
कौन दुनिया में रहा नाज़ उठाने वाला

कैसे मिलता है ज़माने को निभाने वाला
जो मिला हम को मिला दिल का दुखाने वाला

कोई ना-फ़हम कहाँ बात को तेरी समझे
क्या ही अंदाज़ है हर बात उड़ाने वाला

फिर के देखा न कभी कोई हो जीता मरता
कैसा बे-रहम है मुँह फेर के जाने वाला

ख़ौफ़ किस का है तुम्हें हीला बहाना न करो
आ ही जाता है हर इक तौर से आने वाला

ऐ सबा कह दे कि ख़ामोश रहे मुर्ग़-ए-सहर
कौन होता है वो सोते को जगाने वाला

पहलू-ए-क़ब्र में इक रोज़ है सोना सब को
नाज़नीं कोई हो या नाज़ उठाने वाला

नज़्अ' में देख के 'दीवान' को रो कर बोले
रूठा जाता है मिरा आज मनाने वाला
Read Full
Al-Haaj Al-Hafiz
चाह के उलझे हुए रिश्ते को सुलझाने चले
उलझनें हद से बढ़ीं तो दिल को बहकाने चले

पी गया तिश्ना-दहानी में ख़ुदा जाने मैं क्या
क्यों रसीली आँख से वो आग भड़काने चले

आइना जौहर से ख़ाली हो तो आईना नहीं
इस ढले चेहरे पे क्या तुम हुस्न चमकाने चले

सरगुज़िश्त अपने फ़साने की कहूँ क्या ऐ नदीम
मुंसिफ़ी फिर उठ गई जब ख़ुद वो समझाने चले

मो'जिज़ा इस माजरा-ए-दिल का अब तो मान लो
सब हुए मुश्ताक़ जब हम कह के अफ़्साने चले

ग़म हो या राहत किसी से दिल बहलता ही नहीं
जब न कुछ भी बन पड़ी तो ख़ुद को फुसलाने चले

राह में काँटे बिछाए थे जिन्हों ने आज क्यों
बाग़ में देखा तो हँस कर फूल बरसाने चले

राज़-ए-दिल कुछ पा गए 'दीवान' साहिब वर्ना तो
किस ख़ुशी में वो हमारे रंज-ओ-ग़म खाने चले
Read Full
Al-Haaj Al-Hafiz
घटा हो बाद-ए-बहारी हो और जाम नहीं
ग़ज़ब हो साक़ी अगर मय से कोई काम नहीं

हमारी बात भी ज़ाहिद से जा के कह देना
उसे हलाल नहीं मय हमें हराम नहीं

किसी को फ़िक्र हो क्यों मेरे मरने जीने की
कि मेरी ज़ात से बरहम कोई निज़ाम नहीं

हक़ीक़तन यही दुनिया सरा-ए-फ़ानी है
है कूच सबब कि किसी को यहाँ क़ियाम नहीं

बहुत सवाब मिले टूटे दिल को गर जोड़े
कुछ इस से बढ़ के ज़माने में कोई काम नहीं

चले थे दीद को ये कह के उस को रोक दिया
ये ख़ास लोगों की बारी है दीद-ए-आम नहीं

भरोसा कीजिए हरगिज़ न उस की बातों का
जिसे न अपनी किसी बात पर क़ियाम नहीं

हमेशा ग़ीबतें करता बुरा-भला कहता
इन हासिदों को सिवा इस के और काम नहीं

कहीं जो हत्थे चढ़ा दिल-जलों के चर्ख़-ए-कुहन
जला के ख़ाक न कर दें तो मेरा नाम नहीं

मैं वो ग़यूर हूँ 'दीवान' आज तक जिस ने
किसी अमीर को झुक कर किया सलाम नहीं

खुली हक़ीक़त-ए-'दीवान' अहल-ए-नख़वत पर
रईस-ज़ादा हूँ मैं भी कोई ग़ुलाम नहीं
Read Full
Al-Haaj Al-Hafiz
अपना मेआ'र जुदा अपना है किरदार जुदा
अपना साक़ी है जुदा साग़र-ओ-मय-ख़्वार जुदा

बख़्त अपना है जुदा अपना है दिलदार जुदा
शोख़ नज़रें हैं अलग अबरू-ए-ख़मदार जुदा

मैं ज़माने से जुदा कूचा-ओ-बाज़ार जुदा
मेरा अंदाज़ अनोखा मिरी रफ़्तार जुदा

बज़्म में मैं भी रक़ीबों को जगह देता हूँ
जिस तरह गुल से कभी हो न सके ख़ार जुदा

ऐसी बरसात की रुत हम ने न देखी थी कभी
मय जुदा अब्र जुदा साक़ी-ओ-मय-ख़्वार जुदा

फ़स्ल-ए-गुल क़ैद-ए-क़फ़स आँखों का भरना उन पर
छाई है काली घटा और है गुलज़ार जुदा

कोई बरगश्ता रहे बैठ रहे अपने घर
अपनी महफ़िल है जुदा दोस्त-ओ-ग़म-ख़्वार जुदा

आप के ख़ुल्क़ से 'दीवान' सभी यकजा हैं
वर्ना लंदन में तो रहते रहे फ़नकार जुदा

ये ग़ज़ल वो है कि 'दीवान' हमें कहना पड़ा
तर्ज़ अपनी है अलग अपने हैं अशआ'र जुदा
Read Full
Al-Haaj Al-Hafiz