Qadr Bilgrami

Qadr Bilgrami

@qadr-bilgrami

Qadr Bilgrami shayari collection includes sher, ghazal and nazm available in Hindi and English. Dive in Qadr Bilgrami's shayari and don't forget to save your favorite ones.

Followers

0

Content

16

Likes

1

Shayari
Audios
  • Ghazal
शब-ए-ग़म में छाई घटा काली काली
झुकी है बला पर बला काली काली

बहुत ऐसे काले हिरन हम ने देखे
दिखाते हैं आँखें वो क्या काली काली

डटे मिल के रिंद-ए-सियह-मस्त जिस दम
झुकी मय-कदे पर घटा काली काली

शब-ए-माह में वो फिरे बाल खोले
हुई चाँदनी जा-ब-जा काली काली

ये सज्दे को ख़ुद झुक पड़ेगी चमन पर
कि क़िबले से उट्ठी घटा काली काली

खुली सब पर आख़िर तिरी गर्म-दस्ती
हुई खोलते ही हिना का काली काली

लुंढा दे मय-ए-सुर्ख़ तू अब तो साक़ी
घटा उट्ठी है देख क्या काली काली

मिरे का'बा-ए-दिल के मिटने का ग़म है
जो ओढ़े है काबा सबा काली काली

हुए हैं सियह-बख़्त बरबाद लाखों
उठीं आँधियाँ बारहा काली काली

बुख़ारात दिल-ए-आह पर छा गए हैं
घटा है बरु-ए-हवा काली काली

मैं देखूँगा मुँह उन का दे कर ये फ़िक़रा
तिरी शक्ल है मह-लक़ा काली काली

सियह नामा-ए-'क़द्र' महशर में निकला
उठी धूप में इक घटा काली काली
Read Full
Qadr Bilgrami
हुए कारवाँ से जुदा जो हम रह-ए-आशिक़ी में फ़ना हुए
जो गिरे तो नक़्श-ए-क़दम बने जो उठे तो बाँग-ए-दरा हुए

जो हवा से ज़ुल्फ़ बिखर गई नज़र उन की साफ़ बदल गई
जो असीर-ए-हल्क़ा-ए-नाज़ थे वो क़तील-ए-तेग़-ए-अदा हुए

हुआ बा'द-ए-वस्ल अजब मज़ा कि ख़मोश बैठे जुदा जुदा
हमा-तन मैं सब्र-ओ-सुकूँ हुआ हमा-तन वो शर्म-ओ-हया हुए

उठे हम जो ख़्वाब-ओ-ख़याल है लगे तकने दीदा-ए-हाल से
कि वो कब उठे वो किधर गए अभी पास थे अभी क्या हुए

जो निगह है चश्म-ए-सियाह में वही बर्क़-ए-तूर है राह में
तिरी आँख पर जो फ़िदा हुए वो शहीद-ए-राह-ए-ख़ुदा हुए

बने 'क़द्र' ऐसे ग़ुबार हम हुए गर्दिशों में वो ख़ार हम
कि मिसाल-ए-दायरा-ए-फ़लक जो उठे तो बे-सर-ओ-पा हुए
Read Full
Qadr Bilgrami
जो दाग़ है इश्क़-ए-दिल-नशीं का जो दिल-नशीं हैं दिल-ए-हज़ीं का
वही है तमग़ा मिरी जबीं का वही सुलैमाँ मिरे नगीं का

गई न मर कर भी कीना-ख़्वाही मिला के मिट्टी में की तबाही
मिरी तरह से कहीं इलाही फ़लक भी पैवंद हो ज़मीं का

तड़प न पूछो दिल-ए-हज़ीं की कहूँ मैं तुम से कहाँ कहाँ की
उसी से है गर्दिश आसमाँ की उसी से है ज़लज़ला ज़मीं का

जहान सर पर उठा रहा हूँ जुनूँ में धूमें मचा रहा हूँ
जो दश्त में ख़ाक उड़ा रहा हूँ दिमाग़ गुर्दों पे है ज़मीं का

करम में हम को ग़ज़ब में हम को किया जो मुम्ताज़ सब में हम को
तुम्हारी दुश्नाम-ओ-लब में हम को मज़ा मिला ज़हर-ओ-अंग्बीं का

ये लाग़री अब है ख़ार-ए-दामन कि उठ नहीं सकता बार-ए-दामन
जो पाँव अपना है तार-ए-दामन तो हाथ है तार आस्तीं का

मियान-ए-महशर मलालतों से मैं शम्अ' हूँ दिल की हालतों से
कि पाँव तक सौ ख़िजालतों से अरक़ बहा है मिरी जबीं का

सुख़न को 'क़द्र' औज दे ज़बाँ से कि तुख़्म-ए-अफ़्शाँ हो ला-मकाँ से
किया है 'नासिख़' ने आसमाँ से बुलंद-तर रुत्बा इस ज़मीं का
Read Full
Qadr Bilgrami
जो है अर्श पर वही फ़र्श पर कोई ख़ास उस का मकाँ नहीं
वो यहाँ भी है वो वहाँ भी है वो कहीं नहीं वो कहाँ नहीं

ये नसीब तेरे शहीद का कि कमाल-ए-शौक़ था दीद का
जो गिला भी है तो वो तर नहीं जो छुरी भी हर तो रवाँ नहीं

मैं वो सर्व-ए-बाग़-ए-वजूद हूँ मैं वो गुल हूँ शम-ए-हयात का
जिसे फ़स्ल-ए-गुल की ख़ुशी नहीं जिसे रंज-ए-बाद-ए-ख़िज़ाँ नहीं

जो उठे तो सीना उभार कर जो चले तो ठोकरें मार कर
नए आप ही तो जवान हैं कोई क्या जहाँ में जवाँ नहीं

किधर उड़ गया मिरा क़ाफ़िला कि ज़मीन फट के समा गया
न ग़ुबार उठा न जरस बजा कहीं नक़्श-ए-पा का निशाँ नहीं

ये मय-ए-फ़रंग की कश्तियाँ भी सफ़ीना-हा-ए-नजात हैं
कभी उस का बेड़ा न पार हो जो मुरीद-ए-पीर-ए-मुग़ाँ नहीं

उठो 'क़द्र' उन पे न जान दो अजी जान है तो जहान है
कोई काम ऐसा भी करता है अरे मियाँ नहीं अरे मियाँ नहीं
Read Full
Qadr Bilgrami