हम-नफ़स हम-नवाँ हम-सफ़र भी नहीं
दिल कहाँ लग रहा अपने घर भी नहीं
हिज्र के वक़्त पे आँख तर भी नहीं
मुड़ के देखा उसे आँख भर भी नहीं
राह जिस पर चले हम, मुसलसल चले
बे-ख़बर थे, वो जाती बसर भी नहीं
कोह पर से रहे ताकते मयकदा
दूर कोसों दिखा इक शहर भी नहीं
उस को देखा हैं मंसूब होते हुए
आज तक दिल से निकला ज़हर भी नहीं
सब ने तो "दीप" को समझा अदना ही था
क्यों मग़र, आई उसकी लहर भी नहीं
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