मेरे घर के दर से कोई ख़फ़ा न जाएगा
सो बुरा तो कातिल को भी कहा न जाएगा
तुम से इश्क़ है हम को अब करा न जाएगा
दूर तुम से या फिर हम से रहा न जाएगा
मैं जो तुझ से कहता हूँ वो ग़ज़ल से समझा कर
साफ लफ़्ज़ से तो मुझ से कहा न जाएगा
शख़्स वो मुसलसल ज़िक्र-ए-रक़ीब करता है
अंजुमन में पहलू उसके रुका न जाएगा
मैं जहाँ का हर ग़म सहता हूँ ये भी क्या कम है
उस पे तेरा ग़म बिल्कुल भी सहा न जाएगा
देख जाने वाले हम को गले लगाता जा
यूँ फ़ुज़ूल फ़ुर्क़त में अब जला न जाएगा
आप ही मिरा करते जावे क़त्ल, बेहतर है
वक़्त या मुख़ालिफ़ से तो मरा न जाएगा
इश्क़ हो मुहब्बत हो प्यार हो या फिर उलफ़त
मर्तबा मुसलसल माइल करा न जाएगा
एक जाम तुम से उल्फ़त की हम ने पी ली है
और ज़हर ये हम से अब पिया न जाएगा
एक दौर से तुम को ढूँढते रहे हैं हम
दीप कूचे कूचे अब तो फिरा न जाएगा
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