इश्क़ से थीं जो भी उम्मीदें, वो सारी बाँधकर
फेंक आया हूँ कुएँ में, आज रस्सी बाँधकर
हसरतें दिल की उसी छज्जे पे टाँग आया हूँ मैं
माँ रखा करती थी, जिस छज्जे से रोटी बाँधकर
ज़िन्दगी जीने की ख़ातिर चल रहे हैं, इन दिनों
रस्सियों पर, लोग सब आँखों पे पट्टी बाँधकर
बद-हवासी पर मेरी, दरिया बड़ा हैरान था
आ गया इस पार मैं, उस पार कश्ती बाँधकर
रब्ते-बाहम का निकालूँ फिर कोई मैं रास्ता
फिर कबूतर भेज दूँ, पैरों में चिट्ठी बाँधकर
ढूँढने निकला था जब मैं घर से, ख़ुशियों का सुराग़
ताक़ पर रखदी थी मैंने, तब उदासी बाँधकर
ख़ामुशी से मैं चला आया था, उसके शहर से
देखती वो रह गयी थी, टकटकी-सी बाँधकर
चंद अफ़साने वफ़ा के, और कुछ टूटे-से ख़्वाब
रास्ते में रख गया कोई शराबी, बाँधकर
तोड़कर पिंजरा, करन, उड़ना बहुत आसान था
पर मुझे रखती है, उसकी 'ख़ुश-क़लामी बाँधकर
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