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सब्ज़ा हवा से अव्वलीं बरसात में खुला  - Ahmad Azeem

सब्ज़ा हवा से अव्वलीं बरसात में खुला
वो शख़्स मुझ से पहली मुलाक़ात में खुला

रूह-ओ-दिल-ओ-बदन के तक़ाज़े सराब थे
ये भी अज़ाब कश्मकश-ए-ज़ात में खुला

सारे बदन पे ज़ख़्म नुमायाँ थे दिन चढ़े
शब भर रहा था कोई मेरी घात में खुला

मिटने थे सारे रंग धनक के निगाह से
तहरीर ये भी दुख था मिरे हात में खुला

कैसा वो दोस्त था कि खुली दुश्मनी भी की
ख़ंजर छुपा के रख दिया सौग़ात में खुला

आए तो ना-मुराद न जाए हवा-ए-ग़म
दरवाज़ा हम ने छोड़ दिया रात में खुला

- Ahmad Azeem

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