0

साग़र क्यूँ ख़ाली है मिरा ऐ साक़ी तिरे मयख़ाने में  - Ahmad Shahid Khan

साग़र क्यूँ ख़ाली है मिरा ऐ साक़ी तिरे मयख़ाने में
फिर डाल दे उल्फ़त की नज़रें इक बार मिरे पैमाने में

वो इश्क़ नहीं है बुल-हवसी जो वस्ल की चाहत करता है
बाक़ी है फ़रासत अब तक भी इतनी तो तिरे दीवाने में

दुनिया की इनायत है उतनी हर गाम बिछाती है काँटे
हम रंग-ए-हिना कैसे भरते इस उल्फ़त के अफ़्साने में

क्यूँ ख़ाक में मेरी वस्फ़ नहीं जिस से मह-ओ-अंजुम शरमाएँ
हर आन उलझता जाता हूँ इस गुत्थी को सुलझाने में

फिर राज़-ए-ख़ुदी एज़ाज़-ए-ख़ुदी परवाज़-ए-ख़ुदी उस से पूछें
'इक़बाल' सा कोई फ़रज़ाना मिल जाए अगर अनजाने में

- Ahmad Shahid Khan

Miscellaneous Shayari

Our suggestion based on your choice

More by Ahmad Shahid Khan

As you were reading Shayari by Ahmad Shahid Khan

Similar Writers

our suggestion based on Ahmad Shahid Khan

Similar Moods

As you were reading Miscellaneous Shayari