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गुलों पे शबनम नहीं लहू है  - Aijaz Asad

गुलों पे शबनम नहीं लहू है
ये कैसी सौग़ात-ए-रंग-ओ-बू है

बहार ख़ंजर-ब-दस्त आई
हर इक मंज़र लहू लहू है

कोई तमन्ना नहीं है मुझ को
सुकून-ए-दिल की ही आरज़ू है

मैं इक मुद्दत से लापता हूँ
मुझे ख़ुद अपनी ही जुस्तुजू है

ये बे-दिली की नमाज़ तेरी
गुमान होता है बे-वुज़ू है

इस को अक्सर मैं सोचता हूँ
मिरी ग़ज़ल की जो आबरू है

मिरा नहीं है 'असद' ये चेहरा
तो कौन शीशे में रू-ब-रू है

- Aijaz Asad

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