0

मशरिक़ का दिया गुल होता है मग़रिब पे सियाही छाती है - Anand Narayan Mulla

मशरिक़ का दिया गुल होता है मग़रिब पे सियाही छाती है
हर दिल सन सा हो जाता है हर साँस की लौ थर्राती है

उत्तर दक्खिन पूरब पच्छिम हर सम्त से इक चीख़ आती है
नौ-ए-इंसाँ काँधों पे लिए गाँधी की अर्थी जाती है

आकाश के तारे बुझते हैं धरती से धुआँ सा उठता है
दुनिया को ये लगता है जैसे सर से कोई साया उठता है

कुछ देर को नब्ज़-ए-आलम भी चलते चलते रुक जाती है
हर मुल्क का परचम गिरता है हर क़ौम को हिचकी आती है

तहज़ीब जहाँ थर्राती है तारीख़-ए-बशर शरमाती है
मौत अपने कटे पर ख़ुद जैसे दिल ही दिल में पछताती है

इंसाँ वो उठा जिस का सानी सदियों में भी दुनिया जन न सकी
मूरत वो मिटी नक़्क़ाश से भी जोबन के दोबारा बन न सकी

देखा नहीं जाता आँखों से ये मंज़र-ए-इबरतनाक-ए-वतन
फूलों के लहू के प्यासे हैं अपने ही ख़स-ओ-ख़ाशाक-ए-वतन

हाथों से बुझाया ख़ुद अपने वो शोला-ए-रूह पाक-ए-वतन
दाग़ उस से सियह-तर कोई नहीं दामन पे तिरे ऐ ख़ाक-ए-वतन

पैग़ाम-ए-अजल लाई अपने उस सब से बड़े मोहसिन के लिए
ऐ वाए-तुलू-ए-आज़ादी आज़ाद हुए उस दिन के लिए

जब नाख़ुन-ए-हिकमत ही टूटे दुश्वार को आसाँ कौन करे
जब ख़ुश्क हुआ अब्र-ए-बाराँ ही शाख़ों को गुल-अफ़शाँ कौन करे

जब शोला-ए-मीना सर्द हो ख़ुद जामों को फ़रोज़ाँ कौन करे
जब सूरज ही गुल हो जाए तारों में चराग़ाँ कौन करे

नाशाद वतन अफ़्सोस तिरी क़िस्मत का सितारा टूट गया
उँगली को पकड़ कर चलते थे जिस की वही रहबर छूट गया

उस हुस्न से कुछ हस्ती में तिरी अज़दाद हुए थे आ के बहम
इक ख़्वाब-ओ-हक़ीक़त का संगम मिट्टी पे क़दम नज़रों में इरम

इक जिस्म-ए-नहीफ़-ओ-ज़ार मगर इक अज़्म-ए-जवान-ओ-मुस्तहकम
चश्म-ए-बीना मा'सूम का दिल ख़ुर्शीद नफ़स ज़ौक़-ए-शबनम

वो इज्ज़-ए-ग़ुरूर-ए-सुल्ताँ भी जिस के आगे झुक जाता था
वो मोम कि जिस से टकरा कर लोहे को पसीना आता था

सीने में जो दे काँटों को भी जा उस गुल की लताफ़त क्या कहिए
जो ज़हर पिए अमृत कर के उस लब की हलावत क्या कहिए

जिस साँस में दुनिया जाँ पाए उस साँस की निकहत क्या कहिए
जिस मौत पे हस्ती नाज़ करे उस मौत की अज़्मत क्या कहिए

ये मौत न थी क़ुदरत ने तिरे सर पर रक्खा इक ताज-ए-हयात
थी ज़ीस्त तिरी मेराज-ए-वफ़ा और मौत तिरी मेराज-ए-हयात

यकसाँ नज़दीक-ओ-दूर पे था बारान-ए-फ़ैज़-ए-आम तिरा
हर दश्त-ओ-चमन हर कोह-ओ-दमन में गूँजा है पैग़ाम तिरा

हर ख़ुश्क-ओ-तर हस्ती पे रक़म है ख़त्त-ए-जली में नाम तिरा
हर ज़र्रे में तेरा मा'बद हर क़तरा तीरथ धाम तिरा

उस लुत्फ़-ओ-करम के आईं में मर कर भी न कुछ तरमीम हुई
इस मुल्क के कोने कोने में मिट्टी भी तिरी तक़्सीम हुई

तारीख़ में क़ौमों की उभरे कैसे कैसे मुम्ताज़ बशर
कुछ मुल्क के तख़्त-नशीं कुछ तख़्त-फ़लक के ताज-बसर

अपनों के लिए जाम-ओ-सहबा औरों के लिए शमशीर-ओ-तबर
नर्द-ओ-इंसाँ टपती ही रही दुनिया की बिसात-ए-ताक़त पर

मख़्लूक़ ख़ुदा की बन के सिपर मैदाँ में दिलावर एक तू ही
ईमाँ के पयम्बर आए बहुत इंसाँ का पयम्बर एक तू ही

बाज़ू-ए-फ़र्दा उड़ उड़ के थके तिरी रिफ़अत तक जा न सके
ज़ेहनों की तजल्ली काम आई ख़ाके भी तिरे हाथ आ न सके

अलफ़ाज़-ओ-मा'नी ख़त्म हुए उनवाँ भी तिरा अपना न सके
नज़रों के कँवल जल जल के बुझे परछाईं भी तेरी पा न सके

हर ईल्म-ओ-यकीं से बाला-तर तू है वो सिपेह्र-ए-ताबिंदा
सूफ़ी की जहाँ नीची है नज़र शाइ'र का तसव्वुर शर्मिंदा

पस्ती-ए-सियासत को तू ने अपने क़ामत से रिफ़अत दी
ईमाँ की तंग-ख़याली को इंसाँ के ग़म की वुसअ'त दी

हर साँस से दर्स-ए-अमन दिया हर जब्र पे दाद-ए-उल्फ़त दी
क़ातिल को भी गर लब हिल न सके आँखों से दुआ-ए-रहमत दी

हिंसा को अहिंसा का अपनी पैग़ाम सुनाने आया था
नफ़रत की मारी दुनिया में इक प्रेम संदेसा लाया था

उस प्रेम संदेसे को तेरे सीनों की अमानत बनना है
सीनों से कुदूरत धोने को इक मौज-ए-नदामत बनना है

उस मौज को बढ़ते बढ़ते फिर सैलाब-ए-मोहब्बत बनना है
उस सैल-ए-रवाँ के धारे को इस मुल्क की क़िस्मत बनना है

जब तक न बहेगा ये धारा शादाब न होगा बाग़ तिरा
ऐ ख़ाक-ए-वतन दामन से तिरे धुलने का नहीं ये दाग़ तिरा

जाते जाते भी तो हम को इक ज़ीस्त का उनवाँ दे के गया
बुझती हुई शम-ए-महफ़िल को फिर शो'ला-ए-रक़्साँ दे के गया

भटके हुए गाम-ए-इंसाँ को फिर जादा-ए-इंसाँ दे के गया
हर साहिल-ए-ज़ुल्मत को अपना मीनार-ए-दरख़्शाँ दे के गया

तू चुप है लेकिन सदियों तक गूँजेगी सदा-ए-साज़ तिरी
दुनिया को अँधेरी रातों में ढारस देगी आवाज़ तिरी

- Anand Narayan Mulla

Khoon Shayari

Our suggestion based on your choice

More by Anand Narayan Mulla

As you were reading Shayari by Anand Narayan Mulla

Similar Writers

our suggestion based on Anand Narayan Mulla

Similar Moods

As you were reading Khoon Shayari