कोई ऐसी कहानी मुकम्मल न हो
जिसके आख़िर में कोई भी पागल न हो
ख़ौफ़ आने लगा है मुझे दश्त में
अब तो बसने को सहरा हो जंगल न हो
मैंने पूछा यहाँ क्यूँ ये ख़ेमे लगे
फिर ये सोचा कि शायद याँ होटल न हो
बात कर यूँ इशारे से जिससे तेरा
काम सारा निकल जाए, हलचल न हो
उनकी गुज़री है हर रात बस ख़ौफ़ में
जिनके दर पे लगाने को अरगल न हो
हैं तलबगार सब दाद-ओ-तहसीन के
ये वही हैं कि दिल जिनके कोमल न हो
वो क़बीला बिखर जाए जिसमें कोई
अद्ल-ओ-इंसाफ करने को फ़ैसल न हो
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