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न सहरा है न है दरिया हमारा  - Mohammad Aquib Khan

न सहरा है न है दरिया हमारा
बहुत बेकार है जीना हमारा

परेशां खुद को हम खुद कर रहें हैं
किसी ने दिल नहीं तोड़ा हमारा

न मयखानों में और ना मस्जिदों मे
कहीं भी दिल नहीं लगता हमारा

जवानी में बुढापा आ गया है
ग़रीबी खा गई चेहरा हमारा

छिपा लेते हम उस दिन भी ये फांका
अगर बच्चा नहीं रोता हमारा

दहाड़े मार कर सब रो पड़े थे
अधूरा रह गया किस्सा हमारा

वो तनख्वाह भेजता है हर महीने
मगर आता नहीं बेटा हमारा

कमाई हक़ की और मेहनत की रोटी
बहुत आसान है रस्ता हमारा

ज़ईफ इक आदमी नंगे बदन था
हमें चुभने लगा कुर्ता हमारा

हमारा सब्र उल्टा चल रहा है
समर होता नहीं मीठा हमारा

अना की ज़िद पे कोई अड़ गया था
तो फीका पड़ गया सोना हमारा

हमारे दिल को उल्फत चाहिये बस
उठा लोगे ना तुम खर्चा हमारा

भरी महफ़िल से उठ कर चल दिया वो
उसे भाया नहीं होना हमारा

भले तुम अब हमारी ज़िन्दगी हो
मगर वो इश्क़ था पहला हमारा

जो चाहे आये दाना पानी ले ले
खुला रहता है अब पिंजरा हमारा

वो अब जो देख कर मुह फेरता है
उसी से था कभी रिश्ता हमारा

मिला कर प्यार ज़ब सींचा जड़ों कों
तो फल देने लगा पौधा हमारा

सुखन में ग़म मिला कर बेचते हैं
अब अच्छा चल रहा धंधा हमारा

तुम्हारे शहर में मशहूर हैं हम
हर इक नें रास्ता रोका हमारा

हमें मंज़िल हमारी मिल गई है
सफर करता है अब जूता हमारा

ये मुमकिन था के वापिस लौट आते
अगर करता कोई पीछा हमारा

ये आँखे अब भी तुमको देखती हैं
मगर दिल हो गया अंधा हमारा

हमारे कत्ल का मंज़र गज़ब था
कलाई उसकी थी नेज़ा हमारा

फ़क़त इक बार ही जलता है दिन में
बड़ा मगरूर है चूल्हा हमारा

- Mohammad Aquib Khan

Shahr Shayari

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