बस हर इक रात यही जुर्म किया है मैं ने
ला के ख़्वाबों में तुझे देख लिया है मैं ने
हर बरस ज़ीस्त का लम्हा सा लगा है लेकिन
बाज़ लम्हों में तो सदियों को जिया है मैं ने
छूटे जाते हैं सभी अहल-ए-ख़राबात-ए-जुनूँ
क्या अजब अक़्ल से सौदा ये किया है मैं ने
साग़र-ए-मर्ग को सुक़रात ने पी कर ये कहा
ज़िंदगी तेरे लिए ज़हर पिया है मैं ने
अपने हर ख़्वाब की ता'बीर को पाने के लिए
इक समुंदर था जिसे पार किया है मैं ने
तुम नहीं जानते मक़्तल से डराने वालो
जाँ का नज़राना कई बार दिया है मैं ने
कैसे मुमकिन है कि मैं तुझ से तिरी बात करूँ
तेरे कहने पे तो होंटों को सिया है मैं ने
मय-कशी में भी कई दौर गुज़ारे 'आदिल'
कभी चुल्लू कभी साग़र से पिया है मैं ने
Our suggestion based on your choice
As you were reading Shayari by Ahmad Adil
our suggestion based on Ahmad Adil
As you were reading Miscellaneous Shayari