Ahmad Adil

Ahmad Adil

@ahmad-adil

Ahmad Adil shayari collection includes sher, ghazal and nazm available in Hindi and English. Dive in Ahmad Adil's shayari and don't forget to save your favorite ones.

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  • Ghazal
निशाँ मंज़िल का बतलाया न मुझ को हम-सफ़र जाना
तज़ब्ज़ुब में पड़ा है वो जिसे मैं ने ख़िज़र जाना

नज़र मेरी बसीरत को सदा महदूद रखती है
पस-ए-मंज़र नहीं देखा फ़क़त पेश-ए-नज़र जाना

जहाँ तक़दीर ले जाए वहाँ रस्ते नहीं जाते
किया था रुख़ इधर का क्यूँ लिखा था जब उधर जाना

हवाला ज़िंदगी का भी तुम्हारी ज़ुल्फ़ जैसा है
बिखरना फिर सँवर जाना सँवरना फिर बिखर जाना

जुनूँ की राह को अब तक समझ पाए नहीं साहब
कि अपने जिस्म को ढा कर फ़क़त जाँ से गुज़र जाना

डुबोया जिस ने कश्ती को उसे ही ना-ख़ुदा समझे
दिए थे जिस ने सारे दुख उसी को चारागर जाना

उन्हीं तारीक राहों से गुज़रना है तुम्हें 'आदिल'
चराग़-ए-जाँ जला कर तुम बिला ख़ौफ़-ओ-ख़तर जाना
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Ahmad Adil
ये दिया ख़ूँ से जला फिर भी जला है तो सही
लाख रस्मन ही मिला मुझ से मिला है तो सही

अन-कही बात समझ लो तो बड़ी बात है ये
मेरी ख़ामोश नवाई में सदा है तो सही

डगमगाता मुझे देखे तो सहारा दे कोई
ये जो लग़्ज़िश है तो लग़्ज़िश का मज़ा है तो सही

भीगी आँखें ये बताती हैं कि सुन कर मिरा हाल
कुछ न कुछ तुझ को भी एहसास हुआ है तो सही

कहें मग़रूर को बदमस्त मगर सच ये है
इंकिसारी में भी अपना ही नशा है तो सही

ज़िंदगी भर मिरी हस्ती में रचा हो जैसे
तुझ को देखा नहीं महसूस किया है तो सही

काविश-ए-ज़ीस्त है क्या अपनी ही हस्ती की तलाश
ख़ुद को पा लेना ही इंसाँ का सिला है तो सही

है जो आज़ुर्दगी उस की दम-ए-रुख़्सत 'आदिल'
तुझ को अंदाज़ा-ए-तजदीद-ए-वफ़ा है तो सही
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Ahmad Adil
उलझन में हस्त-ओ-बूद की यूँ मुब्तला हूँ मैं
ख़ुद अपना अक्स हूँ कि तिरा आइना हूँ मैं

मुझ को किया है लाइक़-ए-सज्दा इसी लिए
अज्ज़ा-ए-काएनात में सब से जुदा हूँ मैं

तू एक है मगर हैं तिरे अन-गिनत मजाज़
हर आइने में तेरे नुमायाँ हुआ हूँ मैं

तिश्ना-लबी में ज़ब्त हो और वो भी उस घड़ी
जब इत्तिफ़ाक़ से लब-ए-दरिया खड़ा हूँ मैं

मानिंद-ए-कहकशाँ ये मिटाती है तीरगी
पढ़ कर किताब-ए-इश्क़ को रौशन हुआ हूँ मैं

आसूदगी को छोड़ वो हासिल रही मुझे
लेकिन मोहब्बतों को तरसता रहा हूँ मैं

दरिया सिफ़त भी हो के न सैराब कर सका
बरसे बिना जो छट गई ऐसी घटा हूँ मैं

दस्त-ए-जफ़ा से जिस के ये वहशत मुझे मिली
उस को भी है गिला कि दरिंदा-नुमा हूँ मैं

तन्हाई में इक आलम-ए-इम्काँ बसा लिया
'आदिल' यूँ अपने आप में कुछ ढूँढता हूँ मैं
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Ahmad Adil
क्या फ़साने में मिरा नाम कहीं होता है
तेरे होंटों पे नहीं है तो नहीं होता है

तू जिसे ढूँढता फिरता है ज़माने भर में
अपने दिल में तू ज़रा झाँक वहीं होता है

कितने सादा हैं ये कश्ती के मुसाफ़िर जिन को
ना-ख़ुदाओं की ख़ुदाई पे यक़ीं होता है

तोड़ कर बंद-ए-क़बा चाक-गरेबाँ हो कर
रंग वहशत का मिरी और हसीं होता है

वो जताने को ये आता है कि मैं आता हूँ
वर्ना ध्यान उस का सदा और कहीं होता है

जबकि बाक़ी है बहुत उस की बुलंदी का सफ़र
ज़िक्र इंसाँ का सर-ए-अर्श-ए-बरीं होता है

मत कहो उस को ज़ियाँ जिस से ख़ुशी मिलती हो
वक़्त ऐसे कभी ज़ाएअ' तो नहीं होता है

मय-कदे में ही मिलेगा तुझे तेरा 'आदिल'
उस को जाना है किधर रोज़ वहीं होता है
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Ahmad Adil
बस हर इक रात यही जुर्म किया है मैं ने
ला के ख़्वाबों में तुझे देख लिया है मैं ने

हर बरस ज़ीस्त का लम्हा सा लगा है लेकिन
बाज़ लम्हों में तो सदियों को जिया है मैं ने

छूटे जाते हैं सभी अहल-ए-ख़राबात-ए-जुनूँ
क्या अजब अक़्ल से सौदा ये किया है मैं ने

साग़र-ए-मर्ग को सुक़रात ने पी कर ये कहा
ज़िंदगी तेरे लिए ज़हर पिया है मैं ने

अपने हर ख़्वाब की ता'बीर को पाने के लिए
इक समुंदर था जिसे पार किया है मैं ने

तुम नहीं जानते मक़्तल से डराने वालो
जाँ का नज़राना कई बार दिया है मैं ने

कैसे मुमकिन है कि मैं तुझ से तिरी बात करूँ
तेरे कहने पे तो होंटों को सिया है मैं ने

मय-कशी में भी कई दौर गुज़ारे 'आदिल'
कभी चुल्लू कभी साग़र से पिया है मैं ने
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Ahmad Adil
हम से तो राह-ओ-रस्म है अग़्यार की तरह
दुनिया पे मेहरबान हैं ग़म-ख़्वार की तरह

कम-माएगी न पूछ मिरी बज़्म-ए-ग़ैर में
उठती है हर निगाह ख़रीदार की तरह

मैं ताजिरान-ए-इश्क़ के बारे में क्या कहूँ
इन का जुनूँ है गर्मी-ए-बाज़ार की तरह

ख़ुद-साख़्ता बुतों को मैं अब तोड़-ताड़ कर
पूजूँगा बस उसी को परस्तार की तरह

ज़ौक़-ए-नज़र को आप समझते हैं गर गुनाह
नादिम खड़ा हूँ मैं भी गुनहगार की तरह

देखी है मैं ने शाख़ से पत्तों की रुख़्सती
जाने न दूँगा अब तुझे हर बार की तरह

ज़ाद-ए-सफ़र की फ़िक्र न मंज़िल का हो ख़याल
राह-ए-तलब में आओ तलबगार की तरह

चाहा है तुम को यूँ कि तुम्हें भी ख़बर न हो
सोचा है तुम को अन-कहे अशआ'र की तरह

कहने को कोई बंद-ओ-सलासिल नहीं मगर
सब हैं फ़सील-ए-जाँ में गिरफ़्तार की तरह

'आदिल' रुख़-ए-निगार नहीं दिल का आइना
इक़रार-ए-ख़ास होता है इंकार की तरह
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Ahmad Adil
मसरूफ़ रहगुज़र पे चला जा रहा था मैं
फिर क्यूँ लगा कि सब से जुदा जा रहा था मैं

ता'मीर-ए-ज़ात ही में लगी ज़िंदगी तमाम
ख़ालिक़ बना रहा था बना जा रहा था मैं

हासिल थीं जिन को राहतें वो भी फ़ना हुए
क्यूँ अपनी मुफ़्लिसी से डरा जा रहा था मैं

दरिया-ए-ज़ीस्त की यही मंज़िल थी आख़िरी
इक बहर-ए-बे-कराँ में गिरा जा रहा था मैं

समझा था आइने में मिरा अक्स ही नहीं
ज़ाहिर था और सब से छुपा जा रहा था मैं

पहले तो कू-ए-यार की फिर दार की तलब
दलदल में ख़्वाहिशों की धँसा जा रहा था मैं

मैं गर्द-ए-राह था मगर ए'जाज़ देखिए
हर कारवाँ के साथ उड़ा जा रहा था मैं

रुकने में डर ये था कि तवाज़ुन बिगड़ न जाए
'आदिल' इसी गुमाँ में चला जा रहा था मैं
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Ahmad Adil
ये मय-कशी का सबक़ है नए निसाब के साथ
कि ख़ून-ए-दिल हमें पीना है अब शराब के साथ

बस इस यक़ीन पे होती हैं लग़्ज़िशें अक्सर
कि रहमतों का भी दाता है तू अज़ाब के साथ

ये क़ुर्बतों का इशारा है या जुदाई का
जो ज़र्द फूल मिला है तिरे जवाब के साथ

ज़रा वो साथ भी चलते हैं लौट जाते हैं
हिजाब टूट रहे हैं मगर हिजाब के साथ

कहीं है तंगी सुबू की कहीं फ़रावानी
तो फिर गिरफ़्त भी मौला उसी हिसाब के साथ

अगर रक़ीब नहीं है तो कौन है वो शख़्स
दिखाई देता है जो आज-कल जनाब के साथ

ख़याल-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ और हुसूल-ए-मंज़िल-ए-इश्क़
ज़वाल-ए-उम्र में जैसे कोई शबाब के साथ

फ़क़त यूँ शोर मचाने का फ़ाएदा क्या है
सज़ा भी देना ज़रूरी है एहतिसाब के साथ

हमारे हो तो ज़रा खुल के ए'तिमाद करो
नया सवाल उठाते हो क्यूँ जवाब के साथ

ये अपने आप को पाना है तुझ को खोना क्यूँ
तमाम उम्र कटी है इस इज़्तिराब के साथ

ये सब ग़ुरूब के आसार हैं अयाँ 'आदिल'
कि साए बढ़ने लगे ढलते आफ़्ताब के साथ
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Ahmad Adil