साक़ी तेरी रहमत के तलबगार खड़े हैं
मयख़ाने का दर खोल कि मय-ख़्वार खड़े हैं
इक उम्र हुई फिर भी दरीचा न खुला वो
हम दिल में लिए ख़्वाहिश-ए-दीदार खड़े हैं
तूफ़ान ही तूफ़ान हैं कश्ती के सफ़र में
हम थाम के टूटी हुई पतवार खड़े हैं
कैसा है अदावत का ये दरिया यहाँ हाइल
इस पार खड़े हम हैं वो उस पार खड़े हैं
आते हैं मिरे सामने जब भी ये ग़म-ओ-रंज
लगता है मिरे दोस्त मिरे यार खड़े हैं
मातम पे मिरी मौत के मज्मा ही जुड़ा कब
दो चार हैं बैठे हुए दो चार खड़े हैं
बाज़ार में आया है कि लाया गया है फ़न
शहकार लिए हाथ में फ़नकार खड़े हैं
ए'ज़ाज़ की चाँदी में चमक क्या है बला की
बिकने के लिए कितने क़लमकार खड़े हैं
महफ़िल की निज़ामत का ये अंदाज़ कहें क्या
ना-अहल हैं मसनद पे सो हक़दार खड़े हैं
मक़्ते का शरफ़ बख़्शे कोई और ग़ज़ल हो
इक सफ़ में 'बशर' कब से ये अशआर खड़े हैं
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