Ezaz Afzal

Ezaz Afzal

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Ezaz Afzal shayari collection includes sher, ghazal and nazm available in Hindi and English. Dive in Ezaz Afzal's shayari and don't forget to save your favorite ones.

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  • Ghazal
लहू ने क्या तिरे ख़ंजर को दिलकशी दी है
कि हम ने ज़ख़्म भी खाए हैं दाद भी दी है

लिबास छीन लिया है बरहनगी दी है
मगर मज़ाक़ तो देखो कि आँख भी दी है

हमारी बात पे किस को यक़ीन आएगा
ख़िज़ाँ में हम ने बशारत बहार की दी है

धरा ही क्या था तिरे शहर-ए-बे-ज़मीर के पास
मिरे शुऊ'र ने ख़ैरात-ए-आगही दी है

हयात तुझ को ख़ुदा और सर-बुलंद करे
तिरी बक़ा के लिए हम ने ज़िंदगी दी है

कहाँ थी पहले ये बाज़ार-ए-संग की रौनक़
सर-ए-शिकस्ता ने कैसी हमाहमी दी है

चराग़ हूँ मिरी किरनों का क़र्ज़ है सब पर
ब-क़द्र-ए-ज़र्फ़ नज़र सब को रौशनी दी है

चली न फिर किसी मज़लूम के गले पे छुरी
हमारी मौत ने कितनों को ज़िंदगी दी है

तिरे निसाब में दाख़िल थी आस्ताँ-बोसी
मिरे ज़मीर ने ता'लीम-ए-सरकशी दी है

कटेगी उम्र सफ़र जादा-ए-आफ़रीनी में
तिरी तलाश ने तौफ़ीक़-ए-गुमरही दी है

हज़ार दीदा-तसव्वुर हज़ार रंग-ए-नज़र
हवस ने हुस्न को बिसयार चेहरगी दी है
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Ezaz Afzal
नद्दी नद्दी रन पड़ते हैं जब से नाव उतारी है
तूफ़ानों के कस-बल देखे अब मल्लाह की बारी है

नींद रगों में दौड़ रही है पोर पोर बेदारी है
जिस्म बहुत हस्सास है लेकिन दिल जज़्बात से आरी है

आवाज़ों के पैकर ज़ख़्मी लफ़्ज़ों के बुत लहूलुहान
करते हैं इज़हार-ए-तफ़न्नुन कहते हैं फ़नकारी है

मंज़िल मंज़िल पाँव जमा कर हम भी चले थे हम-सफ़रो
उखड़ी उखड़ी चाल का बाइ'स राह की ना-हमवारी है

आँख थकन ने खोली है या अज़्म-ए-सफ़र ने करवट ली
पर फैला कर बैठोगे या उड़ने की तय्यारी है

सच कहते हो नीव में इस की टेढ़ी कोई ईंट नहीं
आड़ी-तिरछी छत का बाइ'स घर की कज-दीवारी है

क्या कहिए क्यूँ आज सरों से ज़ख़्मों का बोझ उठ न सका
पत्थर थे लेकिन हल्के थे फूल है लेकिन भारी है

बस्ती बस्ती क़र्या क़र्या कोसों आँगन है न मुंडेर
ज़ेहन ख़राबा दिल वीराना घर आ'साब पे तारी है

एक दिया और इतना रौशन जैसे दहकता सूरज हो
कहने वाले सच कहते हैं रात बहुत अँधियारी है
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Ezaz Afzal
आज दिल है कि सर-ए-शाम बुझा लगता है
ये अँधेरे का मुसाफ़िर भी थका लगता है

अपने बहके हुए दामन की ख़बर ली न गई
जिस को देखो चराग़ों से ख़फ़ा लगता है

बाग़ का फूल नहीं लाला-ए-सहरा हूँ मैं
लू का झोंका भी मुझे बाद-ए-सबा लगता है

तंगी-ए-ज़र्फ़-ए-नज़र कसरत-ए-नज़्ज़ारा-ए-दहर
प्यास कच्ची हो तो हर जाम भरा लगता है

किस तकल्लुफ़ से गिरह खोल रहा हूँ दिल की
उक़्दा-ए-दर्द तिरा बंद-ए-क़बा लगता है

ख़ार-ज़ारों को सिखा दे न गुलिस्ताँ का चलन
ये मुसाफ़िर तो कोई आबला-पा लगता है

देख तू रौज़न-ए-ज़िंदाँ से ज़रा सू-ए-चमन
आज क्यूँ दिल का हर इक ज़ख़्म हरा लगता है

कौन 'अफ़ज़ल' के सिवा ऐसी ग़ज़ल छेड़ेगा
दोस्तो ये वही आशुफ़्ता-नवा लगता है
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Ezaz Afzal
दिलों के बीच बदन की फ़सील उठा दी जाए
सिमट रही है मसाफ़त ज़रा बढ़ा दी जाए

हमारी सम्त कभी ज़हमत-ए-सफ़र तो करो
तुम्हारी राह में भी कहकशाँ बिछा दी जाए

बनी तो होगी कहीं सरहद-ए-गराँ-गोशी
तुम्हीं बताओ कहाँ से तुम्हें सदा दी जाए

किसी के काम तो आए ख़ुलूस की ख़ुशबू
मिज़ाज में न सही जिस्म में बसा दी जाए

ये सोचते नहीं क्यूँ फ़ासले तवील हुए
ये पूछते हैं कि रफ़्तार क्यूँ बढ़ा दी जाए

ये महवियत न कहीं तुझ से फेर दे सब को
तिरी तरफ़ से तवज्जोह ज़रा हटा दी जाए

तकल्लुफ़ात की पुर-पेच वादियाँ कब तक
ब-राह-ए-रास्त उन्हें दावत-ए-वफ़ा दी जाए

सुनी हैं हम ने बहुत तीरगी पे तक़रीरें
मिले न लफ़्ज़ अगर रौशनी बुझा दी जाए

गुज़रने वाली हवा ख़ुद पता लगा लेगी
ज़रा सी आग किसी राख में दबा दी जाए
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Ezaz Afzal
हर एक गाम पे आसूदगी खड़ी होगी
सफ़र की आख़िरी मंज़िल बहुत कड़ी होगी

ये अपने ख़ून की लहरों में डूबती कश्ती
भँवर से भाग के साहिल पे जा पड़ी होगी

मुसाफ़िरो ये ख़लिश नोक-ए-ख़ार की तो नहीं
ज़रूर पाँव तले कोई पंखुड़ी होगी

तिरे ख़ुलूस-ए-तहफ़्फ़ुज़ में शक नहीं लेकिन
हवा में रेत की दीवार गिर पड़ी होगी

निज़ाम-ए-क़ैद-ए-मुसलसल में कैसी आज़ादी
खुले जो पाँव तो हाथों में हथकड़ी होगी

तिरे फ़रार की सरहद क़रीब थी लेकिन
मिरी तलाश ज़रा दूर जा पड़ी होगी

तुम्हारे दौर-ए-मुसलसल की मुंज़बित तारीख़
हमारे रक़्स-ए-मुसलसल की इक कड़ी होगी

मिरे गुमान की बुनियाद खोखली निकली
तिरे यक़ीं की इमारत कहाँ खड़ी होगी
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