Tahir Tilhari

Tahir Tilhari

@tahir-tilhari

Tahir Tilhari shayari collection includes sher, ghazal and nazm available in Hindi and English. Dive in Tahir Tilhari's shayari and don't forget to save your favorite ones.

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Shayari
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  • Ghazal
जो हम कहें वही तर्ज़-ए-बयान रखता है
वो अपने मुँह में हमारी ज़बान रखता है

रसाई ता-ब-सर-ए-ला-मकान रखता है
परिंद-ए-फ़िक्र ग़ज़ब की उड़ान रखता है

सुना है पाँव तले आसमान रखता है
फ़क़ीर-ए-शहर बड़ी आन-बान रखता है

वो जिस को साया-ए-दीवार तक नसीब नहीं
न जाने ज़ेहन में कितने मकान रखता है

बहुत बलीग़ है अंदाज़-ए-गुफ़्तुगू उस का
हर एक लफ़्ज़ में इक दास्तान रखता है

कोई न देख सके उस के घर की हालत-ए-ज़ार
वो शायद इस लिए ऊँचा मकान रखता है

वो सब से मिलता है हँस कर बड़े ख़ुलूस के साथ
अना की तेग़ मगर दरमियान रखता है

हमारे शहर की आग़ोश वा है सब के लिए
बड़ी कुशादा-दिली मेज़बान रखता है

हमें तो गाँव की आसूदगी ने लूट लिया
जहाँ फ़क़ीर भी अपना मकान रखता है

उसी के सर पे कोई साएबाँ नहीं 'ताहिर'
जो ख़ुद को सब के लिए साएबान रखता है
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Tahir Tilhari
ख़लिश-ए-ज़ख़्म-ए-तमन्ना का मुदावा भी न था
मैं ने वो चाहा जो तक़दीर में लिक्खा भी न था

इतना याद आएगा इक रोज़ ये सोचा भी न था
हाए वो शख़्स कि जिस से कोई रिश्ता भी न था

क्यों उसे देख के बढ़ती थी मिरी तिश्ना-लबी
अब्र-पारा भी न था वो कोई दरिया भी न था

दिल वो सहरा कि जहाँ उड़ती थी हालात की गर्द
ग़म वो बादल जो कभी खुल के बरसता भी न था

तू ने क्यों जागते रहने की सज़ा दी मुझ को
तेरे बारे में कोई ख़्वाब तो देखा भी न था

हो गए लोग ये क्यों मेरे लहू के प्यासे
मैं ने तो आँख उठा कर उसे देखा भी न था

कुछ झिझकती हुई नज़रें भी थीं महव-ए-गुल-गश्त
मैं चमन-ज़ार-ए-तसव्वुर में अकेला भी न था

बाज़ रातों में ये मंज़र भी नज़र से गुज़रा
शम्अ' भी जलती रही घर में उजाला भी न था

कभी बन जाएगी यूँ याद तिरी जुज़्व-ए-हयात
मैं ने इस रुख़ से तिरे बाब में सोचा भी न था

आसमाँ और ज़मीं हद्द-ए-नज़र तक थे मुहीत
हम कहाँ जाते निकल कर कोई रस्ता भी न था

कुछ उमीदें थीं उमंगें थीं तमन्नाएँ थीं
दिल तिरी राह में निकला तो अकेला भी न था

उम्र भर करते रहे घर की तमन्ना 'ताहिर'
और तक़दीर में दीवार का साया भी न था
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Tahir Tilhari
हयात-ओ-मौत की उलझन में डालता क्यों है
ये तोहमतें मिरे ऊपर उछालता क्यों है

अब आ गया हूँ तो ख़तरे में डालता क्यों है
अँधेरी रात में घर से निकालता क्यों है

अभी मोआ'मला-ए-काएनात तय कर दे
ज़रा सी बात क़यामत पे टालता क्यों है

किसी तरह भी तो इंसाँ तिरा हरीफ़ नहीं
फिर इस ग़रीब को तू मार डालता क्यों है

नदीम तेरा तो इस में कोई मफ़ाद नहीं
मैं गिर रहा हूँ तू मुझ को सँभालता क्यों है

मुझे बचा न सकेगा तू ग़र्क़ होने से
फ़ुज़ूल ख़ुद को हलाकत में डालता क्यों है

किसी तरह तो ये एहसास का अज़ाब मिटे
तू मेरे सीने से ख़ंजर निकालता क्यों है

तू अपनी फ़िक्र को कुछ भी समझ मगर 'ताहिर'
किसी के शे'र में कीड़े निकालता क्यों है
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Tahir Tilhari
कोई तो सौग़ात उस के शहर की घर ले चलो
कुछ नहीं तो जिस्म पर ज़ख़्मों की चादर ले चलो

प्यार के बोसीदा फूलों की यहाँ क़ीमत नहीं
शीश-महलों से गुज़रना है तो पत्थर ले चलो

होंगे अर्बाब-ए-तमाशा में कुछ अहल-ए-दर्द भी
चंद आँसू भी तबस्सुम में छुपा कर ले चलो

रात जब भीगी तो साए ने मुझे आवाज़ दी
मैं ही तन्हाई का साथी हूँ मुझे घर ले चलो

जाने कैसे कैसे सहराओं में हो अपना गुज़र
दोस्तो आँखों में अश्कों का समुंदर ले चलो

दाद-ख़्वाही को ये तन्हा ज़ख़्म-ए-सर काफ़ी नहीं
मुंसिफ़ों के पास पत्थर भी उठा कर ले चलो

देर से सुब्हें खड़ी हैं दर पे आईना-ब-दस्त
ज़िंदगी को अब ज़रा ख़्वाबों से बाहर ले चलो

मुजरिम-ए-हक़ शहर में मेरे सिवा कोई नहीं
संग-अंदाज़ों की बस्ती में मिरा सर ले चलो

रात उस के लम्स की ख़ुशबू ने चुपके से कहा
या यहीं रह जाओ तुम भी या मुझे घर ले चलो

'ताहिर' अपने सर किसी का ये भी क्यों एहसाँ रहे
अपनी गर्दन के लिए ख़ुद अपना ख़ंजर ले चलो
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Tahir Tilhari
कोई देखे तो ये अंदाज़ सताने वाला
मुझ से ग़ाफ़िल है मिरे ख़्वाब में आने वाला

बाज़ औक़ात ये देखा है तिरी गलियों में
रास्ता भूल गया राह बताने वाला

दर्स-ए-इबरत मिरा अंजाम है दुनिया के लिए
अब तिरी बातों में कोई नहीं आने वाला

गुमरही का मुझे एहसास दिला देता है
बाज़ औक़ात कोई ठोकरें खाने वाला

मीठी मीठी सी मिरे दिल में कसक छोड़ गया
ख़ल्वत-ए-ज़ेहन में चुपके से दर आने वाला

घर में ये जश्न-ए-चराग़ाँ का समाँ क्या मा'नी
इस ख़राबे में भला कौन है आने वाला

अपने आ'माल-ओ-अक़ाएद को परखते रहिए
अब कोई और पयम्बर नहीं आने वाला

क्या कहूँ कौन है मौज़ू-ए-सुख़न ऐ 'ताहिर'
एक किरदार तराशा है फ़साने वाला
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Tahir Tilhari