हर दिन जला है फिर भी वो जगमगा रहा है
रस्ता दिखाने वाला क्यूँ ज़ख़्म खा रहा है
यूँ मैंने उसको अपनी हस्ती बना लिया था
ये आइना मुझे अब आधा बता रहा है
जिसने क़रीब आना मुझको सिखा दिया था
मुझसे वही मुसलसल दूरी बढ़ा रहा है
कोई नहीं जिसे अब रातों जगा सके तू
क्यूँ ख़्वाब देख ऐसे ख़ुदको रुला रहा है
इक ज़िंदगी गुज़ारी है तेरे बाद मैंने
फिर भी मुझे ज़माना मुर्दा बता रहा है
अब तक इसे अँधेरा कितना डरा रहा था
जो अब गले लगा कर दीपक बुझा रहा है
मैं उसका हाथ अपने हाथों गँवा चुका हूँ
किसकी हिना वो अपने हाथों लगा रहा है
करने हिसाब पूरे आया हूँ तेरे दर पर
साक़ी मुझे गिना कर तू क्यों पिला रहा है
जितना रखा था तुझको अपने क़रीब मैंने
क़िस्मत से मेरी उतना तू छूटता रहा है
सो आक़िबत तलक है अब इंतिज़ार तेरा
ये इश्क़ है तो 'चेतन' भी मुब्तिला रहा है
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