हों तुम को मुबारक लाल-ओ-गुहर हम ले के ये दौलत क्या करते
हर शय को फ़ना होना है अगर तो धन से मोहब्बत क्या करते
सद शुक्र वो थे माइल-ब-करम मरऊब थे रोब-ए-हुस्न से हम
उन से अहवाल-ए-दिल-ए-पुर-ग़म कहने की जसारत क्या करते
हम सहते रहे ज़ुल्म और जफ़ा ये सोच के मुँह से कुछ न कहा
टलता है कहीं क़िस्मत का लिखा फिर उन से शिकायत क्या करते
ज़ाहिर में करम पर माइल हैं आदा की सफ़ों में शामिल हैं
अपने ही हमारे क़ातिल हैं ग़ैरों से शिकायत क्या करते
क्यूँ डर से न होता चेहरा धूल शीशे का हमारा जो था मकाँ
जो संग-ब-कफ़ आए थे यहाँ हम उन से बग़ावत क्या करते
ये काम था बस तुम से मुमकिन मजबूर रहे 'आजिज़' हर छन
तुम ने तो शिकायत की लेकिन हम तुम से शिकायत क्या करते
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