Ajiz Matvi

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Ajiz Matvi shayari collection includes sher, ghazal and nazm available in Hindi and English. Dive in Ajiz Matvi's shayari and don't forget to save your favorite ones.

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इक बार अपना ज़र्फ़-ए-नज़र देख लीजिए
फिर चाहे जिस के ऐब-ओ-हुनर देख लीजिए

क्या जाने किस मक़ाम पे किस शय की हो तलब
चलने से पहले ज़ाद-ए-सफ़र देख लीजिए

हो जाएगा ख़ुद आप को एहसास बे-रुख़ी
गर आप मेरा ज़ख़्म-ए-जिगर देख लीजिए

सब की तरफ़ है आप की चश्म-ए-नवाज़िशात
काश एक बार आप इधर देख लीजिए

तारे मैं तोड़ लाऊँगा आकाश से मगर
शफ़क़त से आप बाज़ू-ओ-पर देख लीजिए

जम्हूरियत का दर्स अगर चाहते हैं आप
कोई भी साया-दार शजर देख लीजिए

हो जाएगी हक़ीक़त-ए-शम्स-ओ-क़मर अयाँ
उन को निगाह भर के अगर देख लीजिए

ये बर्क़-ए-हादिसात भी क्या ज़ुल्म ढाएगी
उठने लगे गुलों से शरर देख लीजिए

'आजिज़' चली हैं ऐसी तअ'स्सुब की आँधियाँ
उजड़े हुए नगर के नगर देख लीजिए
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Ajiz Matvi
दर्द-ए-मुसलसल से आहों में पैदा वो तासीर हुई
अक्सर चारागरों की हालत मुझ से सिवा गम्भीर हुई

क्या जाने क्यूँ मुझ से मेरी बरगश्ता तक़दीर हुई
मम्लिकत-ए-ऐश आँख झपकते ही ग़म की जागीर हुई

उस ने मेरे शीशा-ए-दिल को देख के क्यूँ मुँह मोड़ लिया
शायद इस आईने में उस को ज़ाहिर कोई लकीर हुई

जब भी लिक्खा हाल-ए-दिल-ए-मुज़्तर मैं ने उस को रात गए
ता-ब-सहर अश्क-अफ़्शानी से ज़ाएअ' वो तहरीर हुई

बढ़ती जाती है दूरी-ए-मंज़िल जब से जुनूँ ने छोड़ा साथ
अब तो ख़िरद हर गाम पर अपने पैरों की ज़ंजीर हुई

मुझ को अता करते वो यक़ीनन मेरी तलब से सिवा लेकिन
ख़ुद्दारी में हाथ न फैला शर्म जो दामन-गीर हुई

किस को ख़बर है उन की गली में कितने दिलों का ख़ून हुआ
रानाई में उन की गली जब वादी-ए-कश्मीर हुई

उन से करूँ इज़्हार-ए-तमन्ना सोचा रख कर उज़्र-ए-जुनूँ
लेकिन वो भी रास न आया ला-हासिल तदबीर हुई

टप-टप आँख से आँसू टपके 'आजिज़' आह-ए-सर्द के साथ
मेरे सामने नज़्र-ए-आतिश जब मेरी तस्वीर हुई
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Ajiz Matvi
यूँ तुझ से दूर दूर रहूँ ये सज़ा न दे
अब और ज़िंदा रहने की मुझ को दुआ न दे

अब एहतियात-ए-शिद्दत-ए-गिर्या न पूछिए
डरता हूँ मैं वो सुन के कहीं मुस्कुरा न दे

लो मैं ने दिल की उस से लगाई तो है मगर
डर है ये शम-ए-ग़म कहीं दामन जला न दे

कहना तो है मुझे भी हदीस-ए-ग़म-ए-हयात
लब खोलने की काश इजाज़त ज़माना दे

हो बिजलियों का मुझ से जहाँ पर मुक़ाबला
या-रब वहीं चमन में मुझे आशियाना दे

उस देने वाले के यहाँ किस शय की है कमी
तुम माँगने की तरह जो माँगो तो क्या न दे

हस्सास मैं बहुत हूँ न लग जाए दिल को ठेस
महफ़िल में मुस्कुरा के मुझे यूँ सदा न दे

मैं आश्ना-ए-दर्द-ओ-ग़म-ए-दिल हूँ चारा-गर
जिस से इफ़ाक़ा हो मुझे ऐसी दवा न दे

'आजिज़' तमाम उम्र मैं खाता रहा फ़रेब
मुझ को मिरी वफ़ाओं का ऐसा सिला न दे
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Ajiz Matvi
क्यूँ कहूँ कोई क़द-आवर नहीं आया अब तक
हाँ मिरे क़द के बराबर नहीं आया अब तक

एक मुद्दत से हूँ मैं सीना-सिपर मैदाँ में
हमला-आवर कोई बढ़ कर नहीं आया अब तक

ये तो दरिया हैं जो आपे से गुज़र जाते हैं
जोश में वर्ना समुंदर नहीं आया अब तक

होंगे मंज़िल से हम-आग़ोश ये उम्मीद बंधी
रास्ते में कोई पत्थर नहीं आया अब तक

क्या ज़माने में कोई गोश-बर-आवाज़ नहीं
कोई भी दिल की सदा पर नहीं आया अब तक

जाने क्या बात है साक़ी कि तिरी महफ़िल में
जो गया बढ़ वो पलट कर नहीं आया अब तक

इंतिहा ये है कि पथरा गईं आँखें अपनी
सामने वो परी-पैकर नहीं आया अब तक

क्या करिश्मा है दुर-ए-अश्क-ए-मोहब्बत अपना
सदफ़दुर-ए-चश्म से बाहर नहीं आया अब तक

मुंतज़िर हूँ मैं कफ़न बाँध के सर से 'आजिज़'
सामने से कोई ख़ंजर नहीं आया अब तक
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Ajiz Matvi
मय-ख़ाने पर काले बादल जब घिर घिर कर आते हैं
हम भी आँखों के पैमाने भर भर कर छलकाते हैं

मैं जिन को अपना कहता हूँ कब वो मिरे काम आते हैं
ये सारा संसार है सपना सब झूटे रिश्ते-नाते हैं

तन्हाई के बोझल लम्हे हम इस तरह बिताते हैं
दिल हम को देता है तसल्ली हम दिल को समझाते हैं

जीवन की गुत्थी का सुलझना काम है इक ना-मुम्किन सा
गिर्हें पड़ती ही जाती हैं हम जितना सुलझाते हैं

उन की क़िस्मत में जलना है कौन उन से कहता है जलें
परवाने दीपक पर आ कर अपने-आप जल जाते हैं

जीवन बीता लेकिन अब तक मैं न समझ पाया ये भेद
बीते दिनों की याद आते ही आँसू क्यूँ भर आते हैं

वो जब अपना सर ढकते हैं खुल जाते हैं उन के पैर
जो अपनी चादर से ज़ियादा पैर अपने फैलाते हैं

होता है महसूस ये 'आजिज़' शायद उस ने दस्तक दी
तेज़ हवा के झोंके जब दरवाज़े से टकराते हैं
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Ajiz Matvi
हसरतें आ आ के जम्अ हो रही हैं दिल के पास
कारवाँ गोया पहुँचने वाला है मंज़िल के पास

बीच में जब तक थीं मौजें उन में शोरिश थी बहुत
इंतिशार उन में हुआ जब आ गईं साहिल के पास

नज़्र-ए-क़ातिल जान जब कर दी तो बाक़ी क्या रहा
अब तड़पने के अलावा है ही क्या बिस्मिल के पास

ग़र्क़ कर दें मेरी कश्ती फिर ये मौजें देखना
हश्र तक पटका करेंगी अपना सर साहिल के पास

भीक देना तो कुजा कासा भी उस ने ले लिया
मैं अब इक हसरत-ज़दा हूँ क्या है मुझ साइल के पास

एक हम हैं हम ने कश्ती डाल दी गिर्दाब में
एक तुम हो डरते हो आते हुए साहिल के पास

ख़ैर हो 'आजिज़' कहीं ऐसा न हो दिल डूब जाए
इश्क़ के दरिया में हलचल हो रही है दिल के पास
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Ajiz Matvi
जहाँ न दिल को सुकून है न है क़रार मुझे
ये किस मक़ाम पे ले आई याद-ए-यार मुझे

ये बात सच है मैं बर्ग-ए-ख़िज़ाँ-रसीदा हूँ
मगर सलाम किया करती है बहार मुझे

सितम ये है वो कभी भूल कर नहीं आया
तमाम उम्र रहा जिस का इंतिज़ार मुझे

बस अपने-आप सँवरना भी कोई बात हुई
तू अपनी ज़ुल्फ़ की सूरत कभी सँवार मुझे

अबस है दोस्तो तशरीह-ए-वादा-ए-फ़र्दा
अब इस का ज़िक्र भी होता है नागवार मुझे

तमाम उम्र झुलसता रहा मैं सहरा में
कहीं शजर नज़र आया न साया-दार मुझे

बहार-ए-नौ ये हक़ीक़त है या फ़रेब-ए-निगाह
लिबास-ए-गुल नज़र आता है तार तार मुझे

गुनाह जिस से न सरज़द हुआ हो ऐ 'आजिज़'
उसी को हक़ है वो कह दे गुनाहगार मुझे
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Ajiz Matvi
हर-सू जहाँ में शाम ओ सहर ढूँडते हैं हम
जो दिल में घर करे वो नज़र ढूँडते हैं हम

इन बस्तियों को फूँक के ख़ुद अपने हाथ से
अपने नगर में अपना वही घर ढूँडते हैं हम

जुज़ रेग-ज़ार कुछ भी नहीं ता-हद-निगाह
सहरा में साया-दार शजर ढूँडते हैं हम

तस्लीम है कि जुड़ता नहीं है शिकस्ता दिल
फिर भी दुकान-ए-आईना-गर ढूँडते हैं हम

जिस की अदा अदा पे हो इंसानियत को नाज़
मिल जाए काश ऐसा बशर ढूँडते हैं हम

कुछ इम्तियाज़-ए-मज़हब-ओ-मिल्लत नहीं हमें
इक मो'तबर रफ़ीक़-ए-सफ़र ढूँडते हैं हम

इस दौर में जो फ़न को हमारे परख सके
वो साहब-ए-ज़बान-ओ-नज़र ढूँडते हैं हम

हाथ आएगा न कुछ भी ब-जुज़ संग-ए-बे-बिसात
उथले समुंदरों में गुहर ढूँडते हैं हम

'आजिज़' तलाश-ए-शम्अ में परवाने महव हैं
हैरत उन्हें है उन को अगर ढूँडते हैं हम
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Ajiz Matvi
हों तुम को मुबारक लाल-ओ-गुहर हम ले के ये दौलत क्या करते
हर शय को फ़ना होना है अगर तो धन से मोहब्बत क्या करते

सद शुक्र वो थे माइल-ब-करम मरऊब थे रोब-ए-हुस्न से हम
उन से अहवाल-ए-दिल-ए-पुर-ग़म कहने की जसारत क्या करते

हम सहते रहे ज़ुल्म और जफ़ा ये सोच के मुँह से कुछ न कहा
टलता है कहीं क़िस्मत का लिखा फिर उन से शिकायत क्या करते

ज़ाहिर में करम पर माइल हैं आदा की सफ़ों में शामिल हैं
अपने ही हमारे क़ातिल हैं ग़ैरों से शिकायत क्या करते

क्यूँ डर से न होता चेहरा धूल शीशे का हमारा जो था मकाँ
जो संग-ब-कफ़ आए थे यहाँ हम उन से बग़ावत क्या करते

ये काम था बस तुम से मुमकिन मजबूर रहे 'आजिज़' हर छन
तुम ने तो शिकायत की लेकिन हम तुम से शिकायत क्या करते
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Ajiz Matvi
हर-क़दम मरहला-ए-सब्र-ओ-रज़ा हो जैसे
ज़िंदगी मारका-ए-कर्ब-ओ-बला हो जैसे

यूँ गुज़र जाते हैं दुनिया से अदम के राही
रह में नक़्श-ए-क़दम-ए-राह-नुमा हो जैसे

चुप हुए जाते हैं यूँ देख के सूरत मेरी
हाल मेरा मिरे चेहरे पे लिखा हो जैसे

इस तरह काट रहा हूँ मैं शब-ओ-रोज़-ए-हयात
हर-नफ़स अपने लिए एक सज़ा हो जैसे

दश्त में जलती हैं ता-हद्द-ए-नज़र यूँ शमएँ
सर-ए-हर-ख़ार पे ख़ून-ए-शोहदा हो जैसे

रिंद झिझके तो बला-नोशों ने महसूस किया
मय नहीं जाम में ख़ून-ए-ग़ुरबा हो जैसे

यूँ शफ़क़-रंग सी है आज गुलिस्ताँ की ज़मीं
बरहना-पा कोई काँटों पे चला हो जैसे

हर ज़बाँ पर मिरे मिटने के हैं चर्चे लेकिन
उन के नज़दीक तो कुछ भी न हुआ हो जैसे

आज इस अंदाज़ से आई मुझे हिचकी 'आजिज़'
भूलने वाले ने फिर याद किया हो जैसे
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Ajiz Matvi
हंगामा क्यूँ बपा है ज़रा बाम पर से देख
शोले बुलंद होते हैं ये किस के घर से देख

बिखरें न ये ज़मीं पे कहीं चश्म-ए-तर से देख
पलकों तक आ गए हैं जो चल कर जिगर से देख

ऐ दोस्त पैरवी-ए-कलीमाना है अबस
जल्वों को उस के तू निगहा-ए-मो'तबर से देख

यूँ सर उठा के देख न तू जानिब-ए-फ़लक
ये ताज-ए-तमकनत न गिरे तेरे सर से देख

इस तरह है ग़मों को मिरे दिल से रस्म-ओ-राह
जिस तरह रब्त रखते हैं साए शजर के देख

अपनी नज़र से देख तही-दस्ती-ए-सदफ़
दरिया का ज़र्फ़ क्या है ये चश्म-ए-गुहर से देख

इंसान हादसात से कितना क़रीब है
तू भी ज़रा निकल के कभी अपने घर से देख

'आजिज़' ये क़ौल अपने बुज़ुर्गों का याद रख
रस्ता कभी न छोड़ना दुश्मन के डर से देख
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बहारों से ख़िज़ाँ तक यूँही सैर-ए-गुलिस्ताँ कर के
रफ़ू करते रहे हम जेब-ओ-दामाँ धज्जियाँ कर के

मिलेगा क्या तुझे सय्याद मुझ को बे-ज़बाँ कर के
सुकून-ए-क़ल्ब मिलता है मुझे आह-ओ-फ़ुग़ाँ कर के

चमन को रौशनी दी नज़्र-ए-आतिश आशियाँ कर के
किया ये तजरबा हम ने घर अपना राएगाँ कर के

हक़ीक़त में करम तुम ने किया है हक़-शनासों पर
हर इक को वाक़िफ़-ए-रस्म-ए-जबीन-ओ-आस्ताँ कर के

उठा पाए न हम लुत्फ़-ए-बहाराँ मौसम-ए-गुल में
कहाँ गुम हो गई पर्वाज़ क़ैद-ए-आशियाँ कर के

अब ऐसी ज़िंदगी से मौत आ जाती तो बेहतर था
हुई तज़हीक अपनी दास्तान-ए-दिल बयाँ कर के

अगर तफ़्सील से कहता तो वो शायद समझ जाते
मैं अब पछता रहा हूँ इख़्तिसार-ए-दास्ताँ कर के

भटकते रहते यूँही और न पाते उम्र-भर मंज़िल
बड़ा एहसाँ किया तुम ने शरीक-ए-कारवाँ कर के

समझ में आ गई उन की ख़स-ओ-ख़ाशाक की अज़्मत
गई हैं बिजलियाँ आख़िर तवाफ़-ए-आशियाँ कर के

ज़हे मश्क़-ए-तसव्वुर हम उन्हें देखा ही करते हैं
छुपें चाहे जहाँ वो पर्दा-हा-ए-दरमियाँ कर के

समुंदर फिर हिलोरे लेगा तहज़ीब-ओ-तमद्दुन का
ज़रा देखो तो 'आजिज़' शामिल-ए-उर्दू-ज़बाँ कर के
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कभी अहल-ए-मोहब्बत यूँ न ख़ौफ़-ए-जिस्म-ओ-जाँ करते
अगर शैख़-ओ-बरहमन जश्न-ए-नाक़ूस-ओ-अज़ाँ करते

नवाज़िश काश मुझ पर इतनी मेरे मेहरबाँ करते
कभी दिल की तसल्ली के लिए भूले से हाँ करते

हमारे जज़्बा-ए-तामीर से होते अगर वाक़िफ़
तो सदियों बर्क़ के शो'ले तवाफ़-ए-आशियाँ करते

फ़सुर्दा यूँ न होते ग़ुंचा-ओ-गुल मौसम-ए-गुल में
अगर दिल से चमन की आबियारी बाग़बाँ करते

नवेद-ए-फ़स्ल-ए-गुल आते हैं दिल अपना तड़प उट्ठा
असीर-ए-ग़म हैं वर्ना हम भी सैर-ए-गुलिस्ताँ करते

फ़ज़ा-ए-साहिल-ए-उम्मीद अगर कुछ रास आ जाती
तो हम क्यूँ नज़्र-ए-तूफ़ाँ कश्ती-ए-उम्र-ए-रवाँ करते

हमें भी मिल गई होती सनद मंज़िल-शनासी की
सलीक़े से अगर तक़लीद मीर-ए-कारवाँ करते

कभी बाद-ए-सबा बन कर कभी जारूब-कश हो कर
तमन्ना थी मुसलसल हम तवाफ़-ए-आस्ताँ करते

था चुप रहना ही बेहतर उन की बज़्म-ए-नाज़ में 'आजिज़'
कोई ग़म-आश्ना होता तो शरह-ए-दास्ताँ करते
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मैं इज़्तिराब में हूँ शाम से सहर के लिए
कोई चराग़ अता कर दे रात-भर के लिए

ख़ुदा बचाए तुम्हें ऐसी-वैसी नज़रों से
गले में डाल लो ता'वीज़ तुम नज़र के लिए

क़फ़स-नसीब हैं ना-आश्ना-ए-आज़ादी
ये क़ैद एक चुनौती है बाल-ओ-पर के लिए

निगाह-ए-बर्क़ में वो ख़ार से खटकने लगे
जो तिनके जम्अ' किए हम ने अपने घर के लिए

मसीह-ए-वक़्त तो ऐसी नफ़स सही लेकिन
इलाज है कोई ज़ख़्म-ए-दिल-ओ-जिगर के लिए

तुम्हारे हुस्न-ओ-अदा के हमीं शिकार नहीं
न जाने कितनों के दिल तुम ने बन-सँवर के लिए

तमाम-उम्र अँधेरे में कट गई यारब
कोई चराग़ अता कर हमारे घर के लिए

किसी के सामने सर ख़म करूँ मैं क्यूँ 'आजिज़'
बनी है मेरी जबीं उन के संग-ए-दर के लिए
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