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हर-सू जहाँ में शाम ओ सहर ढूँडते हैं हम  - Ajiz Matvi

हर-सू जहाँ में शाम ओ सहर ढूँडते हैं हम
जो दिल में घर करे वो नज़र ढूँडते हैं हम

इन बस्तियों को फूँक के ख़ुद अपने हाथ से
अपने नगर में अपना वही घर ढूँडते हैं हम

जुज़ रेग-ज़ार कुछ भी नहीं ता-हद-निगाह
सहरा में साया-दार शजर ढूँडते हैं हम

तस्लीम है कि जुड़ता नहीं है शिकस्ता दिल
फिर भी दुकान-ए-आईना-गर ढूँडते हैं हम

जिस की अदा अदा पे हो इंसानियत को नाज़
मिल जाए काश ऐसा बशर ढूँडते हैं हम

कुछ इम्तियाज़-ए-मज़हब-ओ-मिल्लत नहीं हमें
इक मो'तबर रफ़ीक़-ए-सफ़र ढूँडते हैं हम

इस दौर में जो फ़न को हमारे परख सके
वो साहब-ए-ज़बान-ओ-नज़र ढूँडते हैं हम

हाथ आएगा न कुछ भी ब-जुज़ संग-ए-बे-बिसात
उथले समुंदरों में गुहर ढूँडते हैं हम

'आजिज़' तलाश-ए-शम्अ में परवाने महव हैं
हैरत उन्हें है उन को अगर ढूँडते हैं हम

- Ajiz Matvi

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