Ain Salam

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Ain Salam shayari collection includes sher, ghazal and nazm available in Hindi and English. Dive in Ain Salam's shayari and don't forget to save your favorite ones.

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  • Ghazal
आरज़ूओं के धड़कते शहर जल कर रह गए
कैसे कैसे हश्र ख़ामोशी में ढल कर रह गए

ख़ातिर-ए-ख़स्ता का अब कोई नहीं पुर्सान-ए-हाल
कितने दिलदारी के उन्वान थे बदल कर रह गए

अब कहाँ अहद-ए-वफ़ा की पासदारी अब कहाँ
जो हक़ाएक़ थे वो अफ़्सानों में ढल कर रह गए

अब कहाँ वो साहिलों से सैर-ए-तूफ़ान-ए-हयात
अब तो वो साहिल तलातुम में बदल कर रह गए

हासिल-ए-ग़म या ग़म-ए-हासिल मयस्सर कुछ नहीं
ज़िंदगानी के सभी अस्बाब जल कर रह गए

हाए वो ग़म जो बयाँ की हद में आ सकते न थे
क़ैद-ए-अश्क-ओ-आह से आगे निकल कर रह गए

अल-अमाँ हालात की महशर-ख़िरामी अल-अमाँ
डगमगाए इस क़दर गोया सँभल कर रह गए

रह गया हूँ एक मैं तन्हा हुजूम-ए-बर्क़ में
हम-नवा सारे चमन के साथ जल कर रह गए

बन तो सकते थे वो तूफ़ान-ए-क़यामत-ख़ेज़ भी
जो धड़कते वलवले अश्कों में ढल कर रह गए

एक वो हैं डालते हैं माह-ओ-अंजुम पर कमंद
और इक हम हैं कि ख़्वाबों से बहल कर रह गए

जिन को हासिल था ज़माने में सुकून-ए-इज़्तिराब
अपने ही एहसास के शो'लों में जल कर रह गए

जिन की ख़ामोशी थी मशहूर-ए-ज़माना ऐ 'सलाम'
आज उन के मुँह से भी शिकवे निकल कर रह गए
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वहशत-ए-ग़म में सुकूँ ज़ीस्त को मिलता भी कहाँ
था बयाबान में दीवार का साया भी कहाँ

एक मुद्दत से न याद आई न जाँ तड़पी है
दिल तुझे भूल गया हो मगर ऐसा भी कहाँ

हुस्न भी वो न रहा पहला सा दिलदार-ए-हुनर
आह पहली सी वो अब अज़्मत-ए-तेशा भी कहाँ

मस्लहत-बीं है अगर इश्क़-ए-जुनूँ-पेशा तो क्या
अब वो पहले की तिरा वुसअ'त-ए-सहरा भी कहाँ

कोई मंज़िल ही न थी मंज़िल-ए-ग़म से आगे
क़ाफ़िला अपनी तमन्नाओं का रुकता भी कहाँ

ग़ैर-महदूद ख़लाओं में सफ़र करता हूँ
और रसाई का ये आलम है कि भटका भी कहाँ

निकहत-ओ-नूर से मा'मूर फ़ज़ा है फिर भी
तो कि इस राहगुज़र से अभी गुज़रा भी कहाँ

हरम-ओ-दैर से ये सर जो कशीदा आया
झुक गया दर पे तिरे और ये झुकता भी कहाँ

ख़ाक उड़ाता है अभी दश्त-ए-तलब ही में 'सलाम'
दिल-ए-रुस्वा ये हुआ है अभी रुस्वा भी कहाँ
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कितना हुशियार हुआ कितना वो फ़रज़ाना हुआ
तेरी मस्ती-भरी आँखों का जो दीवाना हुआ

आह ये आलम-ए-ग़ुर्बत ये शब-ए-तन्हाई
इक क़यामत हुई ध्यान ऐसे में तेरा न हुआ

इक जहाँ आज भी है उस के तिलिस्मों में असीर
सब का हो कर भी जो अय्यार किसी का न हुआ

तुझ को अपनाने का यारा था न खोने ही का ज़र्फ़
दिल-ए-हैराँ इसी उलझावे में दीवाना हुआ

कैफ़ियत उस की जुदाई की न पूछो यारो
दिल तही हो के भी छलका हुआ पैमाना हुआ

हाए वो लुत्फ़-ओ-करम उस के सितम से पहले
कर के बेगाना ज़माने से जो बेगाना हुआ

रोज़-ए-महशर न बनाया शब-ए-ग़म को हम ने
ज़िक्र तेरा ही बस अफ़्साना दर अफ़्साना हुआ

कर्ब राहत है कभी और कभी राहत कर्ब
इक मुअम्मा ये मिज़ाज-ए-दिल-ए-दीवाना हुआ

एक महसूस क़राबत की वो ख़ुशबू-ए-बदन
जिस को छूने का तसव्वुर में भी याराना हुआ

कैफ़ियत दर्द-ए-तमन्ना की वही है कि जो थी
तेरा इज़हार-ए-वफ़ा भी दम-ए-ईसा न हुआ

जाने किस जान-ए-बहाराँ की लगन है कि 'सलाम'
दिल सा मामूरा-ए-वहशत कभी सहरा न हुआ
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