Janan Malik

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@janan-malik

Janan Malik shayari collection includes sher, ghazal and nazm available in Hindi and English. Dive in Janan Malik's shayari and don't forget to save your favorite ones.

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  • Nazm
आगही का दुख तुम क्या जानो
किस अज़िय्यत से गुज़रना पड़ता है
जब इस के साँप
गले में लिपट जाते हैं
और भींचते हैं
साँसें रुक जाती हैं
बार बार फुंकारते और डसते हैं
सुब्ह-ओ-शाम रात-दिन
उन का ज़हर रग-ओ-पै में उतर जाता है
मेरे लहू में सरायत करता है
मैं टूटती फूटती रहती हूँ
काँच की तरह
रेत की तरह
खन्खनाती हुई मिट्टी की तरह
मेरी नस नस से लहू बहता है
शाम ही से मेरे बिस्तर पर आसन जमा लेते हैं
मुझे सोने नहीं देते
करवट करवट मुझे डसते हैं
लेकिन ये साँप मैं ने ख़ुद
अपने लहू से पाले हैं
अपने वजूद के अंदर
'शकेब' 'सरवत' और ‘सारा’ ने भी पाले थे
उन्हें भी नींद नहीं आती थी
आख़िर-ए-कार वो रेल की पटरी पर जा कर
मीठी नींद सो गए
शायद ये
रेल की सीटियों से बहुत डरते हैं
रेल की पटरी को पार नहीं कर पाते
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तुम ने कभी सोचा है
तुम्हारी ये गहरे सन्नाटों में डूबी ख़ामुशी इस दरयूज़ा-गर पर कितनी भारी पड़ती है
वो बातें जो
तुम्हारे मिज़ाज-ए-मुअल्ला की नफ़ासतों पे गिराँ गुज़रती हैं मेरे लिए क्या मा'नी रखती हैं
क्या
कभी तुम ने पुर-सुकूत समुंदर के अंदर बिफरी उन लहरों की आवाज़ सुनी है जो किसी तूफ़ान का पेश-ख़ेमा होती हैं
मैं ने सुनी है
मुझ से पूछो
तुम्हारी ख़ामुशी में लिपटे किसी तूफ़ान का साइरन क्या जानते हो तुम
मैं ने सुना है
तुम्हारे होंटों से गौहर-ए-नायाब की तरह निकला एक एक लफ़्ज़ तुम्हारी ये ठंडे मीठे चश्मे जैसी बातें और शीरीं अंदाज़-ए-सुख़न सहरा में
चलते मुसाफ़िर की तरह मेरे वजूद को सैराब करता है
मैं जो तुम्हारे दर के आगे अपना दामन फैलाए उन नायाब मोतियों को चुनने की चाहत में बैठी रहती हूँ
जिसे कभी तो तुम ना-मुराद लौटा देते हो कभी बहुत मेहरबाँ हो कर कुछ ख़ैरात
उस के दामन में डाल जाते हो
जिस को मैं तुम्हारी गलियों की दरयूज़ा-गर किसी क़ीमती असासे की तरह
चुन के अपनी पोटली में रख लेती हूँ
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तुम्हें याद होगा
तुम ने मुझे पिछले बरस ख़त में अप्रैल भेजा
जो मुझ तक पहुँचते पहुँचते अगस्त हो गया
लफ़्ज़ पीले पत्तों की तरह
फ़र्श पर बिखर गए
दिसम्बर की सर्द रातों में
मैं वा'दों के आतिश-दान पर
बैठी जागती रही
मेरी रगों में जमा हुआ दिसम्बर
आँखों से पिघल कर
बहता रहता है
इस बरस मुझे
ख़त में कुछ नहीं भेजना
कुछ भी नहीं
शायद अज़िय्यतों से भरी
शाख़ों पर
किसी वा'दे की कोंपल
फूट पड़े
मौसमों का क्या है कब बदल जाएँ
बे-ए'तिबार लहजों की तरह
वक़्त सब कुछ उलट पलट रहा है
शायद तुम्हारे लौटने तक
बहुत कुछ वैसा न रहे
जैसा तुम छोड़ गए थे
लोहे के जबड़े
मिट्टी के मल्बूस
को तार-तार करते जा रहे हैं
पुल जहाँ से तुम पार्क के किनारे
खड़े दिखाई देते थे
वो मंज़र मेट्रो बस ने निगल लिया है
सुम्बुल के पेड़ों की जगह शॉपिंग मॉल ले चुका है
और हाँ
वो फूलों वाली दुकान
जहाँ से हम बुके लेते थे
वहाँ फास्टफूड बन गया
दिल की जगह अंतड़ियों ने ले ली है
क्या कुछ और कैसे बदल जाता है
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बाबा ऐसे में तुम याद बहुत आते हो
कैसी रुत है
ऐसी रुत में
आँखें क्यों भर आती हैं
क्यों तन-मन से हूक उठती है
क्यों जीवन बे-मा'नी सा लगने लगता है
घर सूना वीरान ये आँगन
और कमरों में वहशत
बाबुल मैं तन्हा
मेरी क़ीमत तुझ बिन क्या है
कुछ भी नहीं है
मैं तो काँच का मोती हूँ
बाबुल का आँगन तो सावन में याद आया करता है
लेकिन बाबा मैं तो पतझड़ देख के रोती हूँ
बाबा ऐसे में तुम याद बहुत आते हो
रात को सूखे पत्ते
सहन में गिरते हैं
गुज़रे दिन कब फिरते हैं
फिर आती रुत फूल खिलेंगे
फिर क़ब्रों पर रोना
और क़ब्रों सा होना
मिट्टी की तह में भी जा कर
रिश्ते कब मिटते हैं
दर्द की दीमक जिस्म को चाटती रहती है
और साँसों के धागे काटती रहती है
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म्यूनिख़ में आज क्रिसमस है
सारे मनाज़िर ने सफ़ेद चादर ओढ़ रखी है
कमरे की खिड़की से आती उदासी चहार-सू फैलती जा रही है

अंधेरा उदासियों के नौहे पढ़ रहा है

मुमटियों से फिसलता नहीं कोई कंकर

लम्हे साकित हो गए हैं

अलमारी के ख़ानों में कुछ यादें बिखरी पड़ी हैं

सामने पड़ी कुर्सी झूल रही है

सारा माहौल सोगवार है
अजीब सा डर है

जो आँसू बन कर उतर रहा है

आसमाँ सात रंग रौशनियाँ
क़हक़हे साज़ नग़्मगी

ये हुजूम साल-हा-साल की मसाफ़त है

केंचुली बदलने का एहसास
आँखों की ख़ामोशी से अथाह गहराई में उतर रहा है

मैं अभी लौट कर नहीं आई
दिल ने बरसों से रू-ए-आलम की ख़ाक छानी है

तेरी अंखों में कहीं वो ज़माने सिमट के आ गए हैं

जब कोएटा एयरपोर्ट से नम-नाकी ने तुम्हें रवाना किया
रक़्स नग़्मगी

चूड़ियों की खनक के नीचे हैं
भारी है इन सब साज़ों से
हाथ ख़ाली हैं दिल वीरान है

दायरा दायरा ये ख़ामोशी
दायरा दायरा ये तन्हाई

जिस में क़दीम आसार
मोहन-जोदाड़ो हड़प्पा बाबिल टेक्सला के
जो मेरे अंदर लम्हा लम्हा उतरते जाते हैं
मजीद अमजद
मैं फ़ासलों की कमंद की असीर
मैं तेरी शालात
रूद-बार के पुल पर बड़ी देर से खड़ी हूँ
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याद है उस ने मुझ से कहा था
जानाँ
बैठो
आज बड़े दिन बा'द आई हो
शायद तुम तो इन गलियों को इन रस्तों को दरवाज़ों को
इक मुद्दत से भूल चुकी हो
रिश्तों के दरवाज़ों से दरवाज़े मिलते हैं
और दीवारें दीवारों से
आँखों से ओझल होने से
रिश्ते कम नहीं पड़ जाते
उस ने कहा फिर
बैठो जानाँ चाय पियोगी
आज तुम्हें मैं अपने हाथ की चाय ला कर देता हूँ
पी कर मुझे बताना तुम
कैसी है ये
जानती हो ना मुझे
भुलक्कड़ सा हूँ मैं
चीज़ें अक्सर रख कर कहीं पे भी
खो जाता हूँ
सोचों में गुम हो जाता हूँ
याद नहीं रहता है अक्सर
चीनी डाली है या फीकी
लेकिन छोड़ो मेरी गुमशुदगी की बातें
चाय पी कर बतलाना तुम
इस में मीठा कम या ज़ियादा
या फीकी है
मीठा डालना भूल गया हूँ
या फिर
उस के चेहरे पर आई
उस एक तमन्ना की वो रंगत
शादाबी मैं देख रही थी
उस की आँखें मेरे लबों से
दाद-तलब थीं
उस की आँखें ढूँड रही थीं जाने क्या
मेरी आँखों में
उस ने कहा फिर
जानाँ
चाय मीठी हुई तो तुम जैसी है
फीकी हुई तो मुझ जैसी
हँसते हँसते चाय का फिर सिप लिया मैं ने
उस का ध्यान बटा कर
फिर बातों बातों में मैं ने
उस का कप भी पी डाला
उस चेहरे की शादाबी
के मुरझाने से पहले पहले
उस इक फूल के कुम्हलाने से पहले पहले
चाहत के मौसम की सरहद
मीठे फीके
दो लफ़्ज़ों की दूरी पर है
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Janan Malik
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मैं ने एक सूखते पेड़ पर
नज़्म लिखना शुरूअ' की
मेरे अंदर पीले पत्तों के ढेर लग गए
मैं ने हवा पर नज़्म लिखी
मेरे अंदर शाख़ें फूटने लगीं
फूल मेरी हथेलियों से
बाहर निकल आए
मैं ने बारिश पर नज़्म लिखी
मेरी चादर के पल्लू भीग गए
जिन को सुखाने के लिए
मैं ने
धूप पर नज़्म लिखी
सूरज सवा नेज़े पर आ गया
पेड़ जलने लगे
और परिंद मरने लगे
मैं ने बादलों के लिए हाथ उठाए
फिर कश्तियाँ कम पड़ गईं
लोग डूबने लगे
मैं ने डूबने वालों पर नज़्म लिखना चाही
लाशें ही लाशें मेरी चारों जानिब तैरने लगीं
हर एक लाश कहने लगी
पहले मुझ पर लिखो
पहले मुझ पर
मैं ने इस शोर में
अपनी भी चीख़ें सुनीं
फिर मेरे अंदर
एक गहरे और पुर-असरार सुकूत ने बसेरा कर लिया
अब मैं इस सुकूत की मेज़बानी करती हूँ
इसी के साथ बातें करती हूँ
सोती और जागती हूँ
दीवारें मेरे लिए
लिबास बनती रहती हैं
खिड़कियाँ और रौशन-दान मेरे वजूद के घाव हैं
जिन पर
हर आती हुई सुब्ह और ढलती हुई शाम
अपना अपना मरहम रखती हैं
और मुझ से कहती हैं हम पर भी नज़्म लिखना जब ये घाव भर जाएँ
गली में खेलते बच्चे
कभी कभी
खिड़की के शीशे से आँखें चिपका कर
अन्दर झाँकने की कोशिश करते हैं
उन्हें कौन ये समझाए
चीज़ों के अंदर झाँकने की कोशिश
शाइ'र बना देती है
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मल्गजे से धुँदलके में जब तुम यूनिवर्सिटी से
लौट रहे होते हो
वहीं कैम्पस के बाहर
मैं भी तो बैठी होती हूँ
कभी न ख़त्म होने वाले इंतिज़ार में
मैं तुम्हें देख रही होती हूँ
और तुम
पास से ऐसे गुज़र जाते हो
जैसे वाक़िफ़ ही न हो
मैं वहीं दहलीज़ पे बैठी रह जाती हूँ
फिर पुल के पास से जब तुम गुज़रते हुए
डूबते सूरज को एक नज़र देखते हो
दूर कहीं उस डूबते सूरज की सुर्ख़ ताँबे ऐसी रौशनी से तुम्हारी दहकती जबीं पर
जब दराड़ें पड़ने लगती हैं
मैं तब भी तुम्हें देख रही होती हूँ
गली का बल्ब रौशन करते हुए
एक पल के लिए सोच में पड़ जाती हूँ
अब भला मेरे लिए मन्न-ओ-सल्वा क्यों उतरने लगा
मैं दरवाज़ा खोले ज़िंदगी का इंतिज़ार करती हूँ
मगर वो मेरे हाथ नहीं आती
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आज तुम्हारे शहर से वापस लौट रही हूँ
लेकिन कैसे
साबित-ओ-सालिम कौन पलट कर जाता है
किस दिल से आई थी मैं
तुम से मिलना कैसा होगा

जाने क्या कुछ मन में था
तुम से मिलूँगी और

तुम से मिलूँगी और बहुत सी बातें होंगी कुछ होंटों से बह निकलेंगी कुछ आँखें तहरीर करेंगी

लेकिन ये सब ख़्वाब था मेरा

देखो वापस लौट रही हूँ
तारकोल की बल खाती ये साँपों जैसी सड़कें हर इक मोड़ तुम्हारी यादें
और हवा में लम्स तुम्हारा
भीगती आँखें ले कर वापस लौट रही हूँ

लौट रही हूँ ख़ाली आँख और ख़ाली हाथ
दूर उफ़ुक़ पर ज़र्द उदासी की चादर में लिपटा चाँद
बिजली के तारों पर बैठे कुछ ख़ामोश परिंद
इस चलती गाड़ी में जैसे मैं अफ़्सुर्दा-जाँ
एक तरफ़ चिड़ियों का चम्बा पेड़ों पर वो शोर मचाता
लेकिन जिस का दिल बुझ जाए उस को इन से क्या
पोंछ रही हूँ भीगती आँखें

इक इक करके तेरी यादें
आँचल के पल्लू में बाँध रही हूँ
लेकिन गाँठ नहीं लगती है
मेरी पोरें साथ नहीं हैं
जैसे मेरे हाथ नहीं हैं
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तमाम दिन तुम्हारे मैसेजेज़ मेरे दिल की मुंडेरों पर कबूतरों की तरह उतरते हैं
सफ़ेद दूधिया सियाह चश्म शरबती और सुरमई माइल जंगली कबूतर जिन के सीने के बाल
कई रंगों में दमकते हैं
सब्ज़-गूँ नीलगूँ और ताबदार तपते हुए ताँबे के जैसे

मैं उन की ज़बान समझती हूँ
ग़ुटरग़ूँ ग़ुटरग़ूँ
कितनी परवाज़ कर के आते हैं

शाम से मैं उन के साथ
एक काबुक में बंद हो जाती हूँ
वो मेरे बाज़ुओं कंधों और मेरे सर पर बैठ जाते हैं

मुझे सुब्ह तक सोने नहीं देते
उन के पर सेहर-अंगेज़ लफ़्ज़ों की तरह
अपने मआ'नी खोलते हैं

तुम्हें मालूम है पर लफ़्ज़ों की तरह होते हैं खुलते हैं मआ'नी की तरह
तह-दर-तह
अलामतें
रम्ज़-निगारी
और इशारे किनाए सब कुछ
और ये लफ़्ज़ अपने साथ नींदें उड़ा कर ले जाते हैं
रात मेरी नींदें ले कर गली में
सीटियाँ मारती है
और ख़्वाब खिड़कियों पर दस्तकें देते हैं

तुम अपनी करवट बदलते हो
और रात अपनी पोशाक

मैं उन के पैरों में
मोतियों वाली झाँझरें डालती हूँ
ये अपना अपना दाना दुन्का चुग कर
तुम्हारी ओर उड़ जाते हैं
और फिर एक नई डार उतरती है
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मैं रात थी सियाह रात
एक नुक़्ते में सिमटी हुई
आँख की पुतली जैसे नुक़्ते में
मैं ने एक दिन को बाहर निकाला
फिर उस दिन की बा-ईं पस्ली से
ख़ुद बाहर निकली
फिर मिरे अंदर कितने सूरज चाँद और सितारे अपनी अपनी मंज़िलें तय करने लगे
मैं रात हूँ कभी न ख़त्म होने वाली रात मैं ने अपनी पोशाक का रंग पैदा किया फिर रंगों से रंग मिलते चले गए
मैं रात हूँ
मेरे एक बाज़ू पर सुब्ह और दूसरे पर शाम सो रहे हैं
मेरी चादर के नीचे
शहर क़ब्रिस्तानों की तरह पड़े हुए हैं
अज़ानें एक दूसरे से टकरा कर
गुम्बदों के आस-पास
गिर जाती हैं
लोग भिनभिनाती हुई मक्खियों की तरह
जागते और सो जाते हैं
ख़ुद अपना लहू गिराते और चाटते हैं
समुंदर चीख़ते और दरिया रेंगते
देखती रहती हूँ
देखती रहती हूँ चुप-चाप
उन का अंत
जिन से फिर उन्ही का जनम होगा
अंत जो नए जन्म का बीज है
ग़ुरूब जो तुलूअ' के तश्त का ग़िलाफ़ है
मैं रोने और हँसने से मावरा हूँ
कभी कभी माँ की मोहब्बत
में रोते हुए बच्चे
की आवाज़ मुझे चौंका देती है
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