घटाएँ रो रही हैं तेरी फु़र्क़त में
शजर मुरझा रहे हैं तेरी ग़फ़लत में
तू इनको लम्स दे अपने ही गालों का
ये गुल बे- रंग फूटे हैं जो गु़रबत में
मशालें बन गये हैं वो सभी जुगनू
ये तेरी तीरगी खाने की आदत में
वो परियाँ मर गयीं मायूस खंडर में
तुझी से अच्छा दिखने की ही ज़ीनत में
तलब में तेरे ग़ुरबत का सबक़ सीखा
वगरना कितनी ताक़त थी ये दौलत में
तेरे हाथों के छूने से हुआ मग़रूर
वही इंसान जो जीता था ज़िल्लत में
है लहजा तारी तेरा हर तरफ़ जैसे
कोई तैश-ए-समंदर हो क़यामत में
मुझे शमशीर के ये घाव सहने दे
अभी तो वक़्त है मेरी शहादत में
तू अब तो मेरी उल्फ़त का तक़ाज़ा कर
मैं सब कुछ खो चुका तेरी वकालत में
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