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लफ़्ज़ों के बुत टूट चुके हैं  - Ahmad Soz

लफ़्ज़ों के बुत टूट चुके हैं
कोरा काग़ज़ पड़ा हुआ है

गिध ने कब ज़िंदों को नोचा
शेर ने कब मुर्दों को छुआ है

अपनी अपनी बीन सँभालो
सुना है शहर में नाग आया है

गूँगे बोल रहे हैं पत्थर
सन्नाटा रेज़ा रेज़ा है

घर का कुआँ भी बे-मसरफ़ सा
सागर में तेज़ाब भरा है

सौंप गई है ख़ुद को मुझे वो
हरा भरा दिन आवारा है

नद्दी में जी भर के नहाएँ
कुआँ बदन से भर जाता है

- Ahmad Soz

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