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वहशत में दिल कितना कुशादा करना पड़ता है  - Ainuddin Azim

वहशत में दिल कितना कुशादा करना पड़ता है
इन गीली आँखों को सहरा करना पड़ता है

मुझ को इक आवाज़ तिरी सुनने की कोशिश में
कितने सन्नाटों का पीछा करना पड़ता है

तब खुलती है हम पर क़द्र-ओ-क़ीमत फूलों की
जब काँटों के साथ गुज़ारा करना पड़ता है

यार बड़ा बन कर रहना आसान नहीं होता
अपने आप को कितना छोटा करना पड़ता है

कोह-ए-गिराँ हाइल होता है जिस के रस्ते में
इक दिन उस को तेज़ धमाका करना पड़ता है

अपने घर की बातें 'आज़िम' घर तक रखने में
दीवार-ओ-दर से समझौता करना पड़ता है

- Ainuddin Azim

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