Ainuddin Azim

Ainuddin Azim

@ainuddin-azim

Ainuddin Azim shayari collection includes sher, ghazal and nazm available in Hindi and English. Dive in Ainuddin Azim's shayari and don't forget to save your favorite ones.

Followers

0

Content

19

Likes

0

Shayari
Audios
  • Ghazal
तुम्हारे बिन अब के जान-ए-जाँ मैं ने ईद करने की ठान ली है
ग़मों के एक एक पल से ख़ुशियाँ कशीद करने की ठान ली है

मैं उस की बातों का ज़हर अपनी ख़मोशियों में उतार लूँगा
अगर मुज़िर है तो मैं ने उस को मुफ़ीद करने की ठान ली है

तलाश की शिद्दतों ने अर्ज़-ओ-समा की सब दूरियाँ मिटा दीं
सो मैं ने अब तेरी जुस्तुजू को शदीद करने की ठान ली है

मशीन बोना है जिन का पेशा उन्हें ज़मीं बेच दी है तुम ने
किसान हो कर ख़ुद अपनी मिट्टी पलीद करने की ठान ली है

ये मेरी तहज़ीब का असासा ही मेरी पहचान बन सकेगा
तमाम कोहना रिवायतों को जदीद करने की ठान ली है

स्याह शब का ग़नीम शायद कि आ गया रौशनी की ज़द में
सभी चराग़ों को जिस ने 'आज़िम' शहीद करने की ठान ली है
Read Full
Ainuddin Azim
ला-मकाँ से भी परे ख़ुद से मुलाक़ात करें
खुल के तन्हाई की वुसअत पे ज़रा बात करें

हर बड़े नाम को छोटों से जिला मिलती है
शहर की हाशिया-आराई मज़ाफ़ात करें

लाज वीरानी की रखनी है चलो अहल-ए-जुनूँ
आबला-पाई से आबाद ख़राबात करें

खेत सूखे तो हवा फिर से सनक जाएगी
आप बादल हैं तो दावा नहीं बरसात करें

गुलनवाज़ो हमें काँटों ने नवाज़ा है बहुत
हम पे वाजिब है कि ज़ख़्मों की मुदारात करें

ऐश-ए-आवारगी क्या क्या थे तिरी गलियों में
सोच की परियाँ वहीं अब गुज़र औक़ात करें

मैं अगर ज़िक्र भी उस का न करूँ शेरों में
इस्तिआ'रात अलामात इशारात करें

मत्न को हुस्न के एराब अता हम ने किए
हम से तशरीह तलब जिस्म की आयात करें

ग़ैर महरम से बचा अपनी ग़ज़ल को 'आज़िम'
छेड़ख़्वानी न कहीं मौलवी हज़रात करें
Read Full
Ainuddin Azim
कारोबारी शहरों में ज़ेहन-ओ-दिल मशीनें हैं जिस्म कारख़ाना है
जिस की जितनी आमदनी इतना ही बड़ा उस के हिर्स का दहाना है

ये शुऊर-ज़ादे जो मंफ़अत-गुज़ीदा हैं हैफ़ उन की नज़रों में
बे-ग़रज़ मुलाक़ातें और ख़ुलूस की बातें फ़ेअ'ल-ए-अहमक़ाना है

अपनी ज़ात से क़ुर्बत अपने नाम से निस्बत अपने काम से रग़बत
अपना ख़ोल ही उन का ख़ित्ता-ए-मरासिम है कू-ए-दोस्ताना है

हर ख़ुशी की महफ़िल में क़हक़हे लुटाते हैं ख़ुद ही लूटते भी हैं
ग़म की मजलिसों में भी सब का अपना अपना सर अपना अपना शाना है

जिन बुलंद शाख़ों पर नर्म-रौ हवाएँ हैं बिजलियों का डर भी है
इर्तिक़ा के जंगल में हादसात की ज़द पर सब का आशियाना है

तर्ज़-ए-बाग़बानी में शिद्दत-ए-नुमू-ख़ेज़ी कैसे गुल खिलाएगी
नीम-वा शगूफ़ों के रंग-ए-दिल-फ़रेबी में बू-ए-ताजिराना है

जगमगाते बाम-ओ-दर झिलमिलाते रौज़न हैं चमचमाती दहलीज़ें
ज़ाहिरी चमक 'आज़िम' तुर्रा-ए-शराफ़त है रौनक़-ए-ज़माना है
Read Full
Ainuddin Azim