Mahmood Ayaz

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Mahmood Ayaz shayari collection includes sher, ghazal and nazm available in Hindi and English. Dive in Mahmood Ayaz's shayari and don't forget to save your favorite ones.

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Shayari
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  • Nazm
तमाम शब की दुखन, बे-कली, सुबुक ख़्वाबी
नुमूद-ए-सुब्ह को दरमाँ समझ के काटी है
रगों में दौड़ते फिरते लहू की हर आहट
अजल-गिरफ़्ता ख़यालों को आस देती है
मगर वो आँख जो सब देखती है
हँसती है

उफ़ुक़ से सुब्ह की पहली किरन उभरती है
तमाम रात की फ़रियाद इक सुकूत में चुप
तमाम शब की दुखन, बे-कली, सुबुक-ख़्वाबी
हरीरी पर्दों की ख़ामोश सिलवटों में गुम
जो आँख ज़िंदा थी

ख़ामोश छत को तकती है
और एक आँख जो सब देखती है
हँसी

नुमूद-ए-सुब्ह की ज़रतार रौशनी के साथ
महकते फूल दरीचे से झाँक कर देखें
तू मेज़ दर पे किसी दर्द का निशाँ न मिले
उगालदान दवाओं की शीशियाँ पंखा
कुँवारी माँ का तबस्सुम, सलीब आवेज़ां
हर एक चीज़ ब-दस्तूर अपनी अपनी जगह
नए मरीज़ की आमद का इंतिज़ार करे
और एक आँख जो सब देखती है
हँसती रहे.
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रात भर नर्म हवाओं के झोंके
वक़्त की मौज रवाँ पर बहते
तेरी यादों के सफ़ीने लाए
कि जज़ीरों से निकल कर आए
गुज़रा वक़्त का दामन थामे
तिरी यादें तिरे ग़म के साए
एक इक हर्फ़-ए-वफ़ा की ख़ुश्बू
मौजा-ए-गुल में सिमट कर आए
एक इक अहद-ए-वफ़ा का मंज़र
ख़्वाब की तरह गुज़रते बादल
तेरी क़ुर्बत के महकते हुए पल
मेरे दामन से लिपटने आए
नींद के बार से बोझल आँखें
गर्द-ए-अय्याम से धुँदलाए हुए
एक इक नक़्श को हैरत से तकें
लेकिन अब उन से मुझे क्या लेना
मेरे किस काम के ये नज़राने
एक छोड़ी हुई दुनिया के सफ़ीर
मेरे ग़म-ख़ाने में फिर क्यूँ आए
दर्द का रिश्ता रिफ़ाक़त की लगन
रूह की प्यास मोहब्बत के चलन
मैं ने मुँह मोड़ लिया है सब से
मैं ने दुनिया के तक़ाज़े समझे
अब मेरे पास कोई क्यूँ आए
रात भर नौहा-कुनाँ याद की बिफरी मौजें
मेरे ख़ामोश दर ओ बाम से टकराती हैं
मेरे सीने के हर इक ज़ख़्म को सहलाती है
मुझे एहसास की उस मौत पर सह दे कर
सुब्ह के साथ निगूँ सार पलट जाती है
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तुम ने मुझ से
कोई इक़रार‌‌‌‌-ए-रिफ़ाक़त न किया
ये न कहा
तुम से बिछड़ जाऊँ तो ज़िंदा न रहूँ
मैं ने तुम्हें
ज़ीस्त का सरमाया
मिरा हासिल-ए-यक-उम्र-ए-तमन्ना न कहा
इस क़दर झूट से दहशत-ज़दा थे हम
कि कोई सच न कहा

मैं ने बस इतना कहा
देखो हम और तुम इस आग का हिस्सा हैं
जो ख़ाशाक की मानिंद जलाती है हमें
तुम ने बस इतना कहा
देखो इस आग में हम दोनों अकेले भी हैं
साथी भी हैं
और हम करते रहे उम्र-ए-मह-ओ-साल के ज़ख़्मों का शुमार
कहकशाँ फीकी है कुछ देर का मेहमान है चाँद
डूबती रात में ढलते हुए साए चुप हैं
मेरी शिरयानों में यख़-बस्ता लहू हैराँ है
अव्वलीं क़ुर्ब की ये आँच कहाँ से आई

अजनबी कैसे कहूँ
तुम तो मिरे दिल के निहाँ-ख़ाने में सोए हुए हर ख़्वाब का चेहरा निकले
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लरज़ते सायों से मुबहम नुक़ूश उभरते हैं
इक अन-कही सी कहानी, इक अन-सुनी सी बात
तवील रात की ख़ामोशियों में ढलती है

फ़सुर्दा लम्हे ख़लाओं में रंग भरते हैं

सदाएँ ज़ेहन की पिन्हाइयों में गूँजती हैं
ख़िज़ाँ के साए झलकते हैं तेरी आँखों में
तिरी निगाहों में रफ़्ता बहारों का ग़म है''

हयात ख़्वाब-गहों में पनाह ढूँडती है
फ़सुर्दा लम्हे ख़लाओं में रंग भरते हैं
ये गर्दिश-ए-मह-ओ-साल आज़मा चुकी है जिन्हें
ये गर्दिश-ए-मह-ओ-साल आज़मा रही है हमें
मगर ये सोच कि अंजाम-ए-कार क्या होगा
दवाम तेरा मुक़द्दर है और न मेरा नसीब
दवाम किस को मिला है जो हम को मिल जाता?
ये चंद लम्हा अगर जावेदाँ न हो जाते
मैं सोचता हूँ कि अपना निशान क्या होता
कहाँ पे टूटता जब्र-ए-हयात का अफ़्सूँ
कहाँ पहुँच के ख़यालों को आसरा मिलता?

फ़सुर्दा लम्हो, अभी और बे-कराँ हो जाओ
फ़सुर्दा लम्हो, और बे-कराँ हो जाओ
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गुज़रे हुए माह ओ साल के ग़म
तन्हाई शब में जाग उट्ठे हैं
उम्र-ए-रफ़्ता की जुस्तुजू में
अश्कों के चराग़ जल रहे हैं

आसाइश-ए-ज़िंदगी की हसरत
माज़ी का नक़्श बन चुकी है
हालात की ना-गुज़ीर तल्ख़ी
एक एक नफ़स में बस गई है

नाकामी-ए-आरज़ू को दिल ने
तस्लीम ओ रज़ा के नाम बख़्शे
मिलने की ख़ुशी बिछड़ने का ग़म
क्या क्या थे फ़रेब-ए-ज़िंदगी के

इक उम्र में अब समझ सके हैं
ख़ुशियों का फ़ुसूँ गुरेज़ पा है
अब तर्क दुआ की मंज़िलें हैं
दामान-ए-तलब सिमट चुका है

नाकामी-ए-शौक़ मिटते मिटते
जीने का शुऊर दे गई है
ये ग़म है नवाए शब का हासिल
ये दर्द मता-ए-ज़िंदगी है

उजड़ी हुई हर रविश चमन की
देती है सुराग़ रंग ओ बू का
वीरान हैं ज़िंदगी की राहें
रौशन है चराग़ आरज़ू का
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बसों का शोर धुआँ गर्द धूप की शिद्दत
बुलंद ओ बाला इमारात सर-निगूँ इंसाँ
तलाश-ए-रिज़्क़ में निकला हुआ ये जम्म-ए-ग़फ़ीर
लपकती भागती मख़्लूक़ का ये सैल-ए-रवाँ
हर इक के सीने में यादों की मुनहदिम क़ब्रें
हर एक अपनी ही आवाज़-ए-पा से रू-गर्दां
ये वो हुजूम है जिस में कोई फ़लक पे नहीं
और इस हुजूम-ए-सर-ए-राह से गुज़रते हुए
न जाने कैसे तुम्हारी वफ़ा करम का ख़याल
मिरे जबीं को किसी दस्त-ए-आश्ना की तरह
जो छू गया है तो अश्कों के सोते फूट पड़े
सुमूम ओ रेग के सहरा में इक नफ़स के लिए
चली है बाद-ए-तमन्ना तो उम्र भर की थकन
सर-ए-मिज़ा सिमट आई है एक आँसू में
ये वो गुहर है जो टूटे तो ख़ाक-ए-पा में मिले
ये वो गुहर है जो चमके तो शब-चराग़ बने
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चिलमनों के उस तरफ़ जगमगाती ज़िंदगी
सामने आ कर नक़ाब-ए-रुख़ को सरकाती हुई
मुझ से हँस कर कह रही है मेरा दामन थाम ले

डूबते तारे नुमूद-ए-सुब्ह से सहमे हुए
मल्गजी धुँदलाहटों में झिलमिला कर खो गए
जागती आँखों में इक गुज़री हुई दुनिया लिए
इस तरफ़ मैं हूँ मिरे माज़ी की बढ़ती धुँद है

धुँदले धुँदले नक़्श ला-हासिल तमन्नाओं की राख
रौशनी के दाएरे से दूर यादों का ख़ुमार
इक तरफ़ जलती फ़सीलों से धुआँ उठता हुआ
इक तरफ़ आसूदगी-ए-आरज़ू के नर्म ख़्वाब
ख़म-ब-ख़म राहें सफ़र की गर्द में खोई हुई
जलती आँखों में सुनहरे ख़्वाब-ज़ारों के सराब
रोज़-ओ-शब के जलते-बुझते दाएरों को तोड़ कर
आरज़ू की वुसअतें सहरा-ब-सहरा बे-कनार
ना-तराशीदा चटानें रास्ता रोके हुए
इक सदा-ए-बाज़-गश्त अपनी नवाओं का जवाब
अश्क-हा-ए-सुब्ह-गाही से सहर खिलती हुई
रात की तारीकियाँ दिल के लहू से लाला-ज़ार
एक सोज़-ए-आरज़ू अन्फ़ास में रचता हुआ
एक मुबहम दर्द दिल की ख़ल्वतों में बे-क़रार

बस यही सुब्हें यही शामें यही बे-नाम दर्द
उम्र भर की जिद्द-ओ-जोहद-ए-शौक़ का हासिल रहे
तीरा-बख़्त आँखों में ऐसे ख़्वाब के पैकर बसे
जिन से मुँह मोड़ूँ तो हर आसाइश-ए-दुनिया मिले

चिलमनों के इस तरफ़ से जगमगाती ज़िंदगी
सामने आ कर नक़ाब-ए-रुख़ को सरकाती हुई
मुझ से हँस कर कह रही है मेरा दामन थाम ले
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मौज-ए-सहबा में तमन्ना के सफ़ीने खो कर
नग़्मा ओ रक़्स की महफ़िल से जो घबरा के उठा
एक हँसती हुई गुड़िया ने इशारे से कहा
तुम जो चाहो तो मैं शब भर की रिफ़ाक़त बख़्शूँ

जुम्बिश-ए-अबरू ने अल्फ़ाज़ की ज़हमत भी न दी
नीम-वा आँखों में इक दावत-ए-ख़ामोश लिए
यूँ सिमट कर मिरी आग़ोश में आई जैसे
भरी दुनिया में बस इक गोशा-ए-राहत था यही

हम भी वीरान गुज़रगाहों पे चलते चलते
घर तक आए तो कोई रंग-ए-तकल्लुफ़ ही न था
दो बदन मिलते ही यूँ हमदम-ए-देरीना बने
तनदही-ए-शौक़ में दूरी का हर एहसास मिटा

सुब्ह के साथ खुली आँख तो एहसास हुआ
मेरे सीने में कोई चीज़ थी जो टूट गई
देर से देख रही थी तिरी तस्वीर मुझे
तेरे आरिज़ पे थी बहते हुए अश्कों की नमी
तेरी ख़ामोश निगाहों में कोई शिकवा न था

देखते देखते वीरानी-ए-दिल और बढ़ी
तेरी तस्वीर को सीने से लगा कर पूछा
किस तरब-ज़ार में आसूदा है ऐ राहत-ए-ज़ीस्त
मुझे इन आग के शालों में कहाँ छोड़ गई
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