Ameer Raza Mazhari

Ameer Raza Mazhari

@ameer-raza-mazhari

Ameer Raza Mazhari shayari collection includes sher, ghazal and nazm available in Hindi and English. Dive in Ameer Raza Mazhari's shayari and don't forget to save your favorite ones.

Followers

0

Content

15

Likes

0

Shayari
Audios
  • Ghazal
अगरचे शो'ला अयाँ नहीं है अगरचे लब पर धुआँ नहीं है
निहाँ जिसे हम समझ रहे हैं वो आग दिल की निहाँ नहीं है

ये राह वो है कि हर मुसाफ़िर के तजरबे जिस में मुख़्तलिफ़ हैं
वो कौन इंसाँ है ज़िंदगी जिस की इक नई दास्ताँ नहीं है

किधर को जाएँ किसे पुकारें मुड़ें कि आगे ही बढ़ते जाएँ
ग़ुबार का भी तिरे सहारा हमें तो ऐ कारवाँ नहीं है

ज़रा ये सहरा को जाने वालों से कोई पूछे कहाँ चले तुम
कहीं है कोई ज़मीन ऐसी जहाँ पे ये आसमाँ नहीं है

वो मेहरबाँ हो तो वसवसा ये कि मेहरबानी ये दफ़अ'तन क्यों
वो सरगिराँ है तो है ये हसरत कि हाए वो मेहरबाँ नहीं है

ये दिल की पैहम सी बे-क़रारी नज़र की हरकात-ए-इज़्तिरारी
और उस पे इसरार-ए-पर्दा-दारी कि जैसे वो राज़-दाँ नहीं है

वही हिकायत दिल-ओ-नज़र की वही कहानी है चश्म-ए-तर की
'रज़ा' ये मेरी ग़ज़ल-सराई नई कोई दास्ताँ नहीं है
Read Full
Ameer Raza Mazhari
यूँ वफ़ा आज़माई जाती है
दिल की रग रग दिखाई जाती है

अपनी सूरत के आइने में मुझे
मेरी सूरत दिखाई जाती है

एक हल्की सी मुस्कुराहट से
नई दुनिया बनाई जाती है

न बने बात कुछ तो हँस देना
बात यूँ भी बनाई जाती है

जलने वाला जले धुआँ भी न हो
आग यूँ भी लगाई जाती है

जाने वाले तुझे ख़बर भी है
इक क़यामत सी आई जाती है

चश्म-ए-उम्मीद तुझ को उस की शक्ल
दूर से फिर दिखाई जाती है

दिल की छोटी सी इक कहानी थी
ख़त्म पर वो भी आई जाती है

वो जो चमका था इक सितारा सा
इक घटा उस पे छाई जाती है

दिल पे उभरी थी वो जो इक तस्वीर
कितनी जल्दी मिटाई जाती है

लौ लगाई थी शम-ए-महफ़िल से
वो भी अब झिलमिलाई जाती है

दूसरों से 'रज़ा' किसी की याद
किस तरह से भुलाई जाती है
Read Full
Ameer Raza Mazhari
ग़ैरों से भी धोके खाए हैं अपनों से भी धोके खाए हैं
तब जा के कहीं इस दुनिया के अंदाज़ समझ में आए हैं

वो अपनी जफ़ा-ए-पैहम पर दम भर भी अगर शरमाए हैं
एहसास-ए-वफ़ादारी को मिरे पहरों पछतावे आए हैं

हम में न मोहब्बत की गर्मी हम में न शराफ़त की नर्मी
इंसान कहें क्यों सब हम को हम चलते फिरते साए हैं

कुछ फूल गुलों के हार बने कुछ जिंस सर-ए-बाज़ार बने
इन फूलों की क़िस्मत क्या कहिए शाख़ों ही पे जो मुरझाए हैं

सहरा-ए-ख़िरद में हैराँ हैं कल क़ाफ़िला-हा-ए-राहरवाँ
मुँह मोड़ लिया है सूरज ने हर सम्त अँधेरे छाए हैं

एहसान ब-हर-हालत हम पर है उन की बदलती नज़रों का
जीने के सहारे उल्फ़त में कुछ खोए हैं कुछ पाए हैं

उम्मीद ने फिर करवट ली है बदले हैं फ़ज़ा के फिर तेवर
अब देखिए क्या बरसाते हैं कुछ बादल घिर कर आए हैं

हम दोस्त नहीं दुश्मन ही सही भाई न सही बेरी ही सही
हमसाए का हक़ तो दो हम को हम कुछ भी न हो हमसाए हैं

वो क़द्र करें या ठुकरा दें ये अहल-ए-नज़र की मर्ज़ी है
अम्बार से ख़ार-ओ-ख़स की 'रज़ा' कुछ मोती चुन कर लाए हैं
Read Full
Ameer Raza Mazhari
वो जो दिन हिज्र-ए-यार में गुज़रे
कुछ तड़प कुछ क़रार में गुज़रे

वही हासिल थे ज़िंदगानी के
चार दिन जो बहार में गुज़रे

क्या किया तुम से कैसे कैसे वहम
दिल-ए-बे-ए'तिबार में गुज़रे

कितनी कलियों के कितने फूलों के
क़ाफ़िले नौ-बहार में गुज़रे

ज़िंदगी के लिए मिले थे जो दिन
मौत के इंतिज़ार में गुज़रे

हसरतों के हुजूम में तिरी याद
जैसे महमिल ग़ुबार में गुज़रे

हम चमन में रहे तो ऐसे रहे
जैसे दिन ख़ारज़ार में गुज़रे

ग़म-ए-जानाँ से बच रहे थे जो दिन
वो ग़म-ए-रोज़गार में गुज़रे

ज़िंदगी की यही तमन्ना थी
आप की रहगुज़ार में गुज़रे

जाँ-निसारों का जाएज़ा था वहाँ
हम भी पिछली क़तार में गुज़रे

काटे कटता नहीं वो वक़्त 'रज़ा'
जो किसी इंतिज़ार में गुज़रे
Read Full
Ameer Raza Mazhari
अपनी ख़ता कि रख के दिल ज़ौक़-ए-ख़लिश न पा सके
अक़्ल की झिड़कियाँ सहीं पर न फ़रेब खा सके

हिज्र भी एक वहम है वस्ल भी इक फ़रेब था
खो के न तुम को खो सके पा के न तुम को पा सके

तेरी नज़र ने बज़्म में उठ के हमें बिठा दिया
उट्ठे तो बार बार हम उठ के मगर न जा सके

जुरअत-ए-तर्क-ए-आशिक़ी मुझ से न हो सकी कभी
अपने को आज़मा लिया तुम को न आज़मा सके

कहते हैं मा'रिफ़त जिसे वो भी है ए'तिराफ़-ए-इज्ज़
उस को ख़ुदा समझ लिया जो न समझ में आ सके

इश्क़ उसी का मुस्तनद शौक़ उसी का मो'तबर
तेरी निगाह से भी जो राज़-ए-नज़र छुपा सके

बस इसी तल्ख़ याद पर ख़त्म है दास्तान-ए-दिल
तुम ने हमें भुला दिया हम न तुम्हें भुला सके

आए वो मय-कदे में क्यों उस की जगह हरम में है
आँख बचा के जो पिए पी के न लड़खड़ा सके

वो जो है बंदा-ए-वफ़ा कहते हैं सब जिसे 'रज़ा'
उस की भला मजाल क्या तुम से नज़र मिला सके
Read Full
Ameer Raza Mazhari
किसे ख़बर थी कि जीते जी भी वो दौर आयेगा ज़िंदगी का
कि होगा महसूस हर नफ़स ये न कोई मेरा न मैं किसी का

हुदूद-ए-वहम-ओ-गुमाँ से गुज़रा मकाँ तो क्या ला-मकाँ से गुज़रा
रुकेगा आख़िर कहाँ पहुँच कर ये कारवाँ ज़ौक़-ए-आगही का

जो मेरे दिल से था उन को करना न कर सकीं आप की निगाहें
मिरी तबीअत में नक़्स जो है क़ुसूर है वो भी आप ही का

है क़ाबिल-ए-रहम उन की हालत न कीजिए आप उन से नफ़रत
दर-अस्ल एहसास-ए-कमतरी है जिन्हें है कुछ नाज़ बरतरी का

सिखाने वाले तो आए पैहम हर इक ज़मीं पर हर इक ज़माँ में
मगर हम ऐसे ही बद-गुहर थे सलीक़ा आया न ज़िंदगी का

ये हम ने माना कि इस जहाँ में ख़ुलूस-ए-जिंस-ए-गराँ है लेकिन
कभी तो यारो ख़ुलूस बरतो भरम तो रह जाए दोस्ती का

जो हुस्न-ए-पुर-कार पर फ़िदा हैं उन्हें 'रज़ा' कौन ये बताए
वो हुस्न है फ़ित्ना-ए-क़यामत लगाए ग़ाज़ा जो सादगी का
Read Full
Ameer Raza Mazhari
सुनें बहार की रंगीं-बयानियाँ क्या क्या
कहीं तबस्सुम-ए-गुल ने कहानियाँ क्या क्या

दया जवाब न कुछ मुस्कुरा के रह गए फूल
ज़बान-ए-ख़ार ने कीं बद-ज़बानियाँ क्या क्या

बढ़ा न नाक़ा-ए-लैला बग़ैर नाला-ए-क़ैस
हुनर दिखाती रहीं सारबानियाँ क्या क्या

मिज़ाज-ए-संग न पिघला कि था न सोज़-ए-कलीम
असा पटकती रहीं क़हर-मानियाँ क्या क्या

ज़बान-ए-अक़्ल पे कुछ है ज़बान-ए-इश्क़ पे कुछ
तिरे सुकूत से निकलीं कहानियाँ क्या क्या

न देता हुस्न अगर दिल को इश्क़ का शो'ला
ख़ुद अपनी आग में जलतीं जवानियाँ क्या क्या

मिज़ाज-ए-इश्क़ ने पकड़ा न ए'तिबार का रंग
शरीक-ए-वहम रहीं ख़ुश-गुमानियाँ क्या क्या

जरस भी चुप रहा टूटी न कारवाँ की भी नींद
सुकूत-ए-दश्त ने कीं नौहा-ख़्वानियाँ क्या क्या

पुकारती है 'रज़ा' गर्द-ए-कारवाँ लेकिन
बनी हैं बार-ए-सफ़र सरगिरानियाँ क्या क्या
Read Full
Ameer Raza Mazhari
मिरे सज्दा-हा-ए-नियाज़ को तिरे आस्ताँ की तलाश है
किसी फ़र्द की ये तलब नहीं ये तो इक जहाँ की तलाश है

नई सरज़मीं की है जुस्तुजू नए आसमाँ की तलाश है
जो मकाँ भी ठीक न रख सके उन्हें ला-मकाँ की तलाश है

मिरे पा-ए-शौक़-ए-सफ़र में हैं अभी राह-ओ-रस्म की बंदिशें
मुझे नक़्श-ए-पा की है जुस्तुजू मुझे कारवाँ की तलाश है

जो ख़िज़ाँ-नसीब अज़ल के हैं उन्हें फ़स्ल-ए-गुल की है आरज़ू
वो जो थक चुके हैं बहार से उन्हें अब ख़िज़ाँ की तलाश है

ये मिरा कमाल-ए-मुसव्वरी ये मिरा शुऊ'र-ए-सनम-गरी
अभी ज़ौक़ हुस्न-ए-कसीफ़ है इसे जिस्म-ओ-जाँ की तलाश है

मिरी ज़िंदगी का फ़साना क्या जो सिनाओं शौक़ से आप को
किसी मेहरबाँ की तलाश थी किसी मेहरबाँ की तलाश है

जो क़फ़स से छूट के आए हम किसी शाख़ ने भी जगह न दी
हैं चमन में आ के भी बे-नवा हमें आशियाँ की तलाश है

अभी क़र्ज़ उन की नज़र पे है तिरे जल्वा-हा-ए-मजाज़ का
जो हक़ीक़तों से गुज़र चुके उन्हें दास्ताँ की तलाश है

तिरे दुश्मनों की सफ़ों पे ये किसी दौर में न चमक सकी
तिरी तेग़-ए-नाज़ की आज तक सर-ए-दोस्ताँ की तलाश है

ख़स-ओ-ख़ार को भी जो दिए 'रज़ा' तर-ओ-ताज़ा रहने का हौसला
उसी बाग़बाँ की है आरज़ू उसी गुलिस्ताँ की तलाश है
Read Full
Ameer Raza Mazhari
हज़ार शेवा-ए-रंगीं है इक जफ़ा के लिए
निगाह चाहिए नैरंगी-ए-अदा के लिए

सवाद-ए-फ़िक्र से उभरी तिरी हसीन निगाह
मैं शम्अ' ढूँढ रहा था रह-ए-वफ़ा के लिए

वो रंज-ए-राह हो या ख़ौफ़-ए-गुमरही ऐ दोस्त
जो राह-रौ के लिए है वो रहनुमा के लिए

ये बंदगी ये रियाज़त ये ज़ोहद ये तक़्वा
ये सब ख़ुदी के लिए है कि है ख़ुदा के लिए

ये वक़्त वो है कि दीवाना तोड़ दे ज़ंजीर
कि खुल रही है वो ज़ुल्फ़-ए-सियह दुआ के लिए

मिटा मिटा के बनाए गए ख़म-ए-गेसू
पड़ी गिरह पे गिरह एक मुब्तला के लिए

सुकूत-ए-शब में कि ठहरी है काएनात की नब्ज़
दिल आश्ना का धड़कता है आश्ना के लिए

बस एक निगाह ने दोनों को दे रखा है फ़रेब
'रज़ा' तुम्हारे लिए है न तुम रज़ा के लिए
Read Full
Ameer Raza Mazhari
इधर से भी तो हवा-ए-बहार गुज़री है
कुछ एक बार नहीं बार बार गुज़री है

गिला नहीं ये फ़क़त अर्ज़-ए-हाल है ऐ दोस्त
तिरे बग़ैर बहुत बे-क़रार गुज़री है

वही तो मेरी हयात-ए-सफ़र की पूँजी है
वो ज़िंदगी जो सर-ए-रहगुज़ार गुज़री है

क़लम लिए हुए सोचा किए कि क्या लिखें
कुछ इस तरह भी शब-ए-इंतिज़ार गुज़री है

भुला सकेंगे न उस को क़फ़स में ऐ सय्याद
वो दो घड़ी जो सर-ए-शाख़-सार गुज़री है

कभी कभी तो मिरी बर-महल ख़मोशी भी
उन्हें फ़ुग़ाँ की तरह नागवार गुज़री है

हुईं जो दिल से मिरे बद-गुमानियाँ उन को
तो शाइरी भी मिरी नागवार गुज़री है

ख़िज़ाँ में भी न किसी की ख़ुदा करे गुज़रे
वो जिस तरह मिरी फ़स्ल-ए-बहार गुज़री है

उभर गई है कहीं पर 'रज़ा' जो तल्ख़ी-ए-फ़िक्र
मिरे मिज़ाज-ए-ग़ज़ल पर वो बार गुज़री है
Read Full
Ameer Raza Mazhari