Taban Abdul Hai

Taban Abdul Hai

@taban-abdul-hai

Taban Abdul Hai shayari collection includes sher, ghazal and nazm available in Hindi and English. Dive in Taban Abdul Hai's shayari and don't forget to save your favorite ones.

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  • Ghazal
शब को फिरे वो रश्क-ए-माह ख़ाना-ब-ख़ाना कू-ब-कू
दिन को फिरूँ मैं दाद-ख़्वाह ख़ाना-ब-ख़ाना कू-ब-कू

क़िबला न सर-कशी करो हुस्न पे अपने इस क़दर
तुम से बहुत हैं कज-कुलाह ख़ाना-ब-ख़ाना कू-ब-कू

ख़ाना-ख़राब-ए-इश्क़ ने खो के मिरी हया-ओ-शर्म
मुझ को किया ज़लील आह ख़ाना-ब-ख़ाना कू-ब-कू

तू ने जो कुछ कि की जफ़ा ता-दम-ए-क़त्ल मैं सही
मेरी वफ़ा के हैं गवाह ख़ाना-ब-ख़ाना कू-ब-कू

तेरी कमंद-ए-ज़ुल्फ़ के मुल्क-ब-मुल्क हैं असीर
बिस्मिल-ए-ख़ंजर-निगाह ख़ाना-ब-ख़ाना कू-ब-कू

कल तू ने किस का ख़ूँ किया मुझ को बता कि आज है
शोर ओ फ़ुग़ाँ ओ आह आह ख़ाना-ब-ख़ाना कू-ब-कू

मुझ को बुला के क़त्ल कर या तो मिरे गुनाह बख़्श
हूँ मैं कहाँ तलक तबाह ख़ाना-ब-ख़ाना कू-ब-कू

सीना-फ़िगार ओ जामा-चाक गिर्या-कुनाँ ओ नारा-ज़न
फिरते हैं तेरे दाद-ख़्वाह ख़ाना-ब-ख़ाना कू-ब-कू

'ताबाँ' तिरे फ़िराक़ में सर को पटकता रात दिन
फिरता है मिस्ल-ए-महर-ओ-माह ख़ाना-ब-ख़ाना कू-ब-कू
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Taban Abdul Hai
सुन फ़स्ल-ए-गुल ख़ुशी हो गुलशन में आइयाँ हैं
क्या बुलबुलों ने देखो धूमें मचाइयाँ हैं

बीमार हो ज़मीं से उठते नहीं असा बिन
नर्गिस को तुम ने शायद आँखें दिखाइयाँ हैं

देख उस को आइना भी हैरान हो गया है
चेहरे पे जान तेरे ऐसी सफ़ाइयाँ हैं

ख़ुर्शीद उस को कहिए तो जान है वो पीला
गर मह कहूँ तिरा मुँह तो उस पे झाइयाँ हैं

यूँ गर्म यार होना फिर बात भी न कहना
क्या बे-मुरव्वती है क्या बेवफ़ाइयाँ हैं

झमकी दिखा झिझक कर दिल ले के भाग जाना
क्या अचपलाइयाँ हैं क्या चंचलाइयाँ हैं

क़िस्मत में क्या है देखें जीते बचें कि मर जाएँ
क़ातिल से अब तो हम ने आँखें लड़ाइयाँ हैं

दिल आशिक़ों का ले कर फिर यार नहीं ये दिलबर
इन बे-मुरव्वतों की क्या आश्नाइयाँ हैं

फिर मेहरबाँ हुआ है 'ताबाँ' मिरा सितमगर
बातें तिरी किसी ने शायद सुनाइयाँ हैं
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Taban Abdul Hai
कई दिन हो गए या-रब नहीं देखा है यार अपना
हुआ मालूम यूँ शायद किया कम उन ने प्यार अपना

हवा भी इश्क़ की लगने न देता मैं उसे हरगिज़
अगर इस दिल पे होता हाए कुछ भी इख़्तियार अपना

ये दोनो लाज़िम-ओ-मलज़ूम हैं गोया कि आपस में
न यार अपना कभू होते सुनाने रोज़गार अपना

हुआ हूँ ख़ाक उस के ग़म में तो भी सीना-साफ़ी से
नहीं खोता है वो आईना-रू दिल से ग़ुबार अपना

ये शोअ'ला सा तुम्हारा रंग कुछ ज़ोर ही झमकता है
जला क्यूँकर न दूँ मैं ख़िर्मन-ए-सब्र-ओ-क़रार अपना

सर-ए-फ़ितराक था उस को न था लेकिन नसीबों में
तड़पता छोड़ कर जाता रहा ज़ालिम शिकार अपना

तुझे लाज़िम है होना मेहरबाँ 'ताबाँ' प ऐ ज़ालिम
कि है बेताब अपना आशिक़ अपना बे-क़रार अपना
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Taban Abdul Hai
आरज़ू है मैं रखूँ तेरे क़दम पर गर जबीं
तू उठावे नाज़ से ज़ालिम लगा ठोकर जबीं

अपने घर में तो बहुत पटका प कुछ हासिल नहीं
अब के जी में है तिरी चौखट पे रोऊँ धर जबीं

जैसी पेशानी तिरी है ऐ मिरे ख़ुर्शीद-रू
चाँद की है रौशनी में उस से कब बेहतर जबीं

शैख़ आ जल्वा ख़ुदा का मय-कदे में है मिरे
क्यूँ रगड़ता है अबस काबे के तू दर पर जबीं

क्या करूँ तेरे क़दम तक तो नहीं है दस्तरस
नक़्श-ए-पा ही पर तिरे मलता हूँ मैं अक्सर जबीं

शैख़ गर शैतान से सूरत नहीं मिलती तिरी
बस बता दाग़ी हुई है किस तरह यकसर जबीं

है किसी की भी तिरी से औंधी पेशानी भला
देख तू ऐ शोख़ अपनी आइना ले कर जबीं

आ के जिन हाथों से मलता था तिरे तलवों के तईं
पीटता हूँ अब उन्हीं हाथों से मैं अक्सर जबीं

बूझ कर नक़्श-ए-क़दम को तेरे मेहराब-ए-दुआ
माँगता हूँ मैं मुराद-ए-दिल को रख इस पर जबीं

चाँद का मुखड़ा है या आईना या मुसहफ़ का लौह
या तिरी है ऐ मिरे रश्क-ए-मह-ओ-अख़्तर जबीं

साफ़ दिल 'ताबाँ' मुकद्दर ही कभू होता नहीं
आईना की हैगी रौशन देख ले यकसर जबीं
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Taban Abdul Hai
हुए हैं जा के आशिक़ अब तो हम उस शोख़ चंचल के
सितमगर बे-मुरव्वत बे-वफ़ा बे-रहम अचपल के

ग़ज़ालों को तिरी आँखें से कुछ निस्बत नहीं हरगिज़
कि ये आहू हैं शहरी और वे वहशी हैं जंगल के

गिरफ़्तारी हुई है दिल को मेरे बे-तरह इस से
कि आए पेच में कहते ही उन की ज़ुल्फ़ के बल के

ये दौलत-मंद अगर शब को नहीं यारो तो फिर क्या है
कि हैं ये चाँदनी रातों को भी मुहताज मिशअल के

तुम्हारे दर्द-ए-सर से संदली-रंगो अगर जी दूँ
तू छापे क़ब्र पर देना मिरी तुम आ के संदल के

कोई इस को कहे है दाम कुइ ज़ंजीर कुइ सुम्बुल
हज़ारों नाम हैं काफ़िर तिरी ज़ुल्फ़-ए-मुसलसल के

बयाबाँ बन हमें उल्फ़त नहीं है शहर से हरगिज़
तरह मजनूँ के 'ताबाँ' हम तो दीवाने हैं जंगल के
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Taban Abdul Hai
खोता ही नहीं है हवस-ए-मतअम-ओ-मलबस
ये नफ़्स-ए-हवसनाक ओ बद-आमोज़-ओ-मुहव्वस

बे-शुबह तिरी ज़ात ख़ुदावंद-ए-ख़लाइक़
आ'ला है तआ'ला है मुअ'ल्ला है मुक़द्दस

वो काम तू कर जिस से तिरी गोर हो गुलज़ार
क्या ख़ाना-ए-दीवार को करता है मुक़र्नस

मदफ़न के तईं आगे ही मुनइ'म न बिना रख
क्या जानिए वाँ दफ़्न हो या खाएगा कर्गस

है वस्ल तिरा जन्नत-ओ-दोज़ख़ ही जुदा है
जाने है कब इस बाब के तईं हर कस-ओ-ना-कस

तस्वीर तिरे पंजा-ए-सीमीं की तला से
दीवान में है मेरे लिखी जाए मुख़म्मस

कहने को मिरे दिल के सुन ऐ गुलशन-ए-ख़ूबी
गर है तो तिरे को है ये फ़िरदौस ये मुरदस

सुन सुन के तिरा शोर वो बेज़ार हुआ और
नाले का असर तेरे दिला देख लिया बस

इस जुब्बा-ओ-अम्मामा से रिंदों में न आओ
रुस्वा न करो शैख़-जी ये शक्ल-ए-मुक़द्दस

मानिंद-ए-कमाँ ख़म न करूँ क़द को तमअ' से
गर्दिश में रखे गो मुझे ये चर्ख़-ए-मुक़व्वस

हर रात है आशिक़ को तिरे रोज़-ए-क़यामत
हर रोज़ जुदाई में उसे हो है हुनद्दस

'ताबाँ' ये ग़ज़ल अहल-ए-शुऊरों के लिए है
अहमक़ न कोई समझे तो जाने मिरा धंदस
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